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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
आधार पर अहिंसा से विरत होने का उपदेश दिया गया था। गांधीजी की अहिंसावृत्ति उनकी वैष्णवपरता में है। वैष्णव अहिंसा पर हा पूर्ण बल देते हैं । इस प्रकार भारतीय राजनीति समाज में सर्वाङ्गीण रूप से मित्रभाव स्थिति होने पर अहिंसा को उपयुक्त मानती है। अहिंसक स्थिति में मन को संयतता पर बल दिया जाता है।
__ काशीविद्यापीठ के शोध छात्र श्री वीरेन्द्रकुमार सिंह ने कहा--गांधीजी अहंभाव के त्याग पर बल देते थे, अहत्व की कल्पना में भी हिंसा है। वह स्वार्थ, अहंकार तथा भौतिक भोगों की लोलुपता को छोड़कर अपने व्यक्तित्व का विसर्जन विराट के हित में कर देने में अपना विकास एवं निःश्रेयस मानते थे। उन्होंने आगे कहा-गांधी जी की दृष्टि से अहिंसा दुर्बलों का अस्त्र नहीं है प्रत्युत निर्भयता या आत्मबल से अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है। बुद्ध, महावीर, ईसा की अहिंसायें महात्मा गांधी में मौलिक बन गयीं। परम्परागत सैद्धान्तिक अहिंसा गांधी में व्यावहारिकता प्राप्त कर ली।
तुलनात्मकधर्मदर्शन के आचार्य प्रो. महाप्रभुलाल गोस्वामी ने कहाहिंसा के दो पक्ष है बाह्य तथा आभ्यन्तर । जैन लोगों ने इसे द्रव्य हिंसा एवं भाव हिंसा के रूप में भी आकलित किया है। क्रोधादि की प्रेरणा से रहित हिंसा बाह्य या द्रव्य हिंसा है और कलुषित चित्त से उत्पन्न हिंसा आभ्यन्तर या भाव हिंसा है। गांधीजी दोनों से बचते थे। गांधीजी ने उपर्युक्त परम्परा के आधार पर अपने शत्रु से वैसे ही प्रेम किया जैसे अम्बरीष ने दुर्वासा के वचनों का कलुषित भावजन्य हिंसा होने पर भी पालन किया। लालालाजपतराय के प्रश्नों का उत्तर देते हुए गांधी जी ने कहा था--मैं जन्म से वैष्णव हूं, अतः बाल्यावस्था से ही मुझको अहिंसा की शिक्षा मिली है। अहिंसा का अर्थ शरीर अथवा मन से किसी प्राणी को कष्ट न देना है।
काशी विद्यापीठ में दर्शन विभाग के प्रोफेसर डा० रघनाथ गिरि ने गांधीजी के सिद्धान्त एवं व्यवहार की मीमांसा करते हुए कहा--गांधीदर्शन में सत्य पर अधिक बल दिया गया है। सत्य को ईश्वर तथा स्वरूपतः सिद्ध माना गया है । दर्शन की दृष्टि से यह अद्वैत तत्त्व, तथा समस्त ज्ञान का आधार है। गांधीजी ने इस सत्य को आस्था एवं विश्वास क्रिया एवं व्यवहार का आधार बनाया। गांधीजी ज्ञान, वाणी, एवं आचरण में इसका पालन करते थे।
परिसंवाद-३
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