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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
है वह साधन उतनी ही मात्रा में शुद्ध माना जाता है। पर यह सम्भव नहीं है कि हर स्थिति में साधन एवं साध्य की पूर्णता प्राप्त हो सके और गांधीजी स्वयं अपनी अहिंसा को पूर्ण नहीं मानते थे। क्योंकि बीच-बीच में अपनी तात्कालिक उद्देश्यों की विफलता में गांधीजी कह उठते थे, यदि मेरी अहिंसा पूर्ण होती तो ऐसा न होता। वह प्राप्त साध्यों की मात्रा देख कर साधनों की मात्रा निर्धारित करते थे। पर प्रश्न यह है कि यदि साध्यों के सन्दर्भ को छोड़ कर साधनों का कोई महत्त्व नहीं तो गांधी दर्शन में साधनों पर अधिक महत्त्व क्यों दिया जाता है। सम्भवतः गांधी जी ने परम्परा से प्राप्त गीता के विचार पर कि फल तो साध्य है जो हमारे हाथ में नहीं है, कर्तव्य मात्र पर बल दिया। और इस सन्दर्भ में साधनों के विकास पर बल दिया कि कार्यानुकूल साधनों का आविष्कार किया जाय । पर यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि गांधीजी शुद्ध साधनों के प्रयोग पर ही अधिक बल देते हैं। इसीलिए बाद में कर्म क्षेत्र में साध्य और साधन एक बनने लगे और तभी गांधी-दर्शन में कहा जाता है कि अगर साधन अहिंसा है तो उसका फल भी अहिंसा ही होगा। अतएव अहिंसक एवं शान्तिमय साधनों से प्राप्त सामाजिक रूप भी अहिंसात्मक एवं शान्तिमय होगा।
वयोवृद्ध तथा विद्याव्यासंग के लिए सदा सन्नद्ध रहने वाले गांधीवादी विचारक प्रो० मुकुट बिहारीलाल ने कहा--गांधीजी धर्मनिष्ठ थे, वह आस्थापूर्वक धर्मों के सद्गुणों को ग्रहण करने पर बल देते थे। नैतिकता को धर्म का अंग मानते थे। मानव कल्याण के लिए समर्पित जीवन वाला व्यक्ति ही सामाजिक प्रेरणाओं को परिपुष्ट करके नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास कर सकता है। वह मानव मात्र में एकत्व स्थापित कर समत्व की प्रतिष्ठा भी कर सकता है। गांधीजी ऐसा करते थे वह स्त्री-पुरुष की समता के समर्थक थे, तथा नैतिकता की दृष्टि से स्त्री को पुरुष से सबल पाते थे। संक्षेप में यदि कहें तो गांधीजी का विचार अद्वैतवादी था। ईश्वर तथा धर्म पर अटल विश्वास, सत्य, अहिंसा, आत्मनियन्त्रण, आत्मोत्कर्ष, आत्माभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, मानवमात्र की एकता और समता, देश बन्धुत्व पर आश्रित उदार राष्ट्रीयता मानवव्यक्ति तथा मानव श्रमका आदर, सब समाजोपयोगी व्यवसायों का समान पद और गौरव, सत्याग्रह द्वारा अन्याय का प्रतिरोध तथा न्याय की स्थापना, भरपूर काम तथा जीवन निर्वाह योग्य जीविका का अधिकार एवं समाजोपयोगी श्रम का कर्तव्य, सर्वोदय से प्रेरित स्वतन्त्र सहकार पर आश्रित आर्थिक व्यवस्था, मुनाफे के बजाय जन-कल्याण और उपयोग के लिए उत्पादन, कर्तव्य परायणता, लोकसेवा, सर्वोदय, सबसे सौजन्य एवं सौहार्दपूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवहार, ग्राम स्वराज्य से समन्वित विकेन्द्रित लोकतन्त्र, आत्मनियन्त्रित स्वतन्त्र
परिसंवाद-३
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