________________
१०२
भारतीय 'चन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
किन्तु वास्तविकतो यह है कि यद्यपि वे अहिंसा को जीवन के क्षेत्र में व्यवहृत करते थे, किन्तु वे मानते थे कि अहिंसा का लक्ष्य सत्य का अनुसरण करना है। उनके अनुसार सत्य साध्य है तथा अहिंसा साधन है। 'हरिजन' में आने एक लेख में उन्होंने लिखा था, “अहिंसा साध्य नहीं है. साध्य तो सत्य है ।" लेकिन वे मानते थे कि सत्य को प्राप्त करने का अहिंसा ही एक मात्र साधन है। उन्होंने कहा था"मानव सम्बन्धों में सत्य की प्राप्ति का अहिंसा को छोड़कर कोई अन्य साधन नहीं है। अहिंसा पर अडिग रहना सत्य से अनिवार्य रूप में जुड़ा है, हिंसा सत्य से किसी रूप में नहीं जुड़ी है। इसलिए अहिंसा पर मेरी निष्ठा है।' इससे स्पष्ट है कि अहिंसा का महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि उसके माध्यम से जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् सत्य की सिद्धि होती हैं। बिना अहिंसा के सत्य का पालन, सत्य का अन्वेषण नहीं हो सकता। इस तरह दोनों के बीच साधन और साध्य की एकाकारता है। यदि सत्य साध्य है तो उसे प्राप्त करने का प्रयास किए बिना उसका कोई महत्त्व नहीं है और उसकी प्राप्ति केवल अहिंसा के द्वारा होती है। अहिंसा ही सत्य को जीवन के लिए सार्थक बनाती है। इस प्रकार सत्य और अहिंसा साव्यसाधन सम्बन्ध में बँधे होने की स्थिति में एक दूसरे से भिन्न भी हैं अभिन्न भी।
अहिंसा का शाब्दिक अर्थ हिंसा की अनुपस्थिति है और हिंसा का सामान्य तात्पर्य है किसी को हानि न पहुँचाना। यों आमतौर पर हिंसा का अर्थ किसी को चोट पहुँचाना या मारना माना जाता है। अतः अहिंसा का सामान्य अर्थ चोट न पहुँचाना या मारने से विरत रहना माना जाता है। किन्तु व्यापक अर्थ में अहिंसा का अर्थ किसी को किसी भी प्रकार की हानि न पहुँचाना है। गांधीजी ने अहिंसा को व्यापक अर्थ में ही अपनाया। गांधीजी ने अहिंसा के दो रूप बताये हैंसकारात्मक अहिंसा तथा नकारात्मक अहिंसा । नकारात्मक अहिंसा से उनका तात्पर्य है सी भी प्राणो को शारीरिक या मानसिक हानि न पहुँचाना है । उनका कहना था कि किसी भी अनुचित कर्म में प्रवृत्त या हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति को बदले में हानि पहुँचाना तो क्या उसके प्रति दुर्भावना रखना भी हिंसा है। अतः सभी प्रकार से दूसरे के प्रति दुर्भावना न रखना या उसके अहित की कामना न करना नकारात्मक अहिंसा है। इससे भिन्न सकारात्मक अहिंता का तात्पर्य सर्वोच्च प्रेम तथा त्याग से है। अहिंसा का यह स्वरूप शत्रु तथा मित्र एवं अपने तथा पराये का भेद नहीं करता। यह अभेद दृष्टि है। सामाजिक स्तर पर अद्वय दृष्टि है। इस प्रकार गांधी ने अहिंसा की अवधारणा को बहुत विस्तार प्रदान किया।
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org