________________
सत्य और अहिंसा की अवधारणा
.....
६५
आधुनिक युग में राजनीति के इस केन्द्रीय महत्त्व को गांधीजी पहचानते थे । इसी कारण उन्होंने राजनीति को त्याज्य नहीं समझा। लेकिन उन्होंने राजनीति का परिष्कार करना अपना परम् धर्म समझा। वे यह भी मानते थे कि राजनीति सत्ता का खेल है सत्ता की धुरी पर वह नाचती है। सत्ता पर आश्रित, सत्ता से प्रेरित और मात्र सत्ता की ओर उन्मुख राजनीति को वे मर्यादाहीन मानते थे। वह राजनीति को मर्यादित करना चाहते थे। उनके अनुसार केवल मूल्यों और आदर्शों से ही राजनीति को मर्यादित और परिष्कृत किया जा सकता है। इसी कारण उनका कहना था कि मात्र राजनीतिक सत्ता को हथियाने का लक्ष्य बहुत घटिया लक्ष्य है। ऐसी राजनीति को वह भ्रष्ट राजनीति मानते थे। उनकी दृष्टि में सच्ची शक्ति जनता के प्रेम में निहित है। प्रेम और सद्भाव से जनता का हृदय जितना वास्तविक शक्ति है। अतः गांधीजी कहते थे कि हमारा अन्तःकरण जीतना पवित्र और शुद्ध होगा उतना ही अधिक हम जनता का हृदय जीतने में सफल होंगे और गांधीजी के अनुसार अन्तःकरण की शुचिता का आधार सत्य और अहिंसा जैसे सर्वोच्च मूल्यों पर अडिग आस्था तथा सत्य आचरण से ही आ सकती है।
इस प्रकार गांधी ने सत्य और नैतिक मूल्यों के पारस्परिक सम्बन्ध का निर्धारण करके यह बताया कि नैतिक मूल्यों के माध्यम से ही सत्ता की वैधता, समाजिकता और मानवीय उपादेयता स्थापित हो सकती है। नैतिक मूल्यों की सर्वोच्चता को वह हर परिस्थिति में कायम रखना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने राजनीति के सत्ता केन्द्रित होने की प्रचलित धारणा के स्थान पर शक्ति की परिभाषा को व्यापक रूप से सामाजिक बनाया, वैयक्तिक और निजी नतिकता तथा सार्वजनिक नैतिकता के द्वैत को समाप्त करने पर बल दिया, नैतिक मूल्यों तथा राजनीतिक स्वार्थों के द्वन्द्व में नैतिक मूल्यों की अप्रतिहत श्रेष्ठता की स्थापना की तथा राजनीति में दोहरे मानदण्डों को कायम रखने को अनैतिक करार कर दिया। राजनीति को यह स्तर प्रदान करना वास्तव में राजनीति को एक प्रकार से धार्मिक धरातल में प्रतिष्ठित करने के समान था। गांधीजी ने अपने राजनैतिक जीवन के आरम्भ में ही राजनीति को नैतिक दृष्टि से देखना शुरू कर दिया था। सन् १९१५ में ही उन्होंने कह दिया था कि उनका उद्देश्य' राजनीतिक जीवन एवं राजनीति संस्थाओं का 'अध्यात्मीकरण' करना है। वे कहते थे कि यदि राजनीति को धर्म से अलग कर दिया जाता है तो वह उसी तरह त्याज्य है जैसे कि मृत शरीर । मृत शरीर की अन्त्येष्टि सम्पन्न की जाती है, इसके अलावा एक शव का क्या किया जा सकता है ? लेकिन यह स्मरणीय है कि धर्म की उनकी अवधारणा भी वह नहीं जिसके अनुसार शास्त्रानुकूल कर्मकाण्डों
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org