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व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में
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प्रयोग करके देखा जा सकता है कि वह प्राचीन ज्ञान कितना सक्षम और प्रासङ्गिक है। इस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले व्यक्ति को शास्त्र के अक्षरार्थ के स्थान पर भावार्थ पर बल देना होगा। इस प्रकार का उद्यम करने वाले व्यक्ति को न केवल विशद दृष्टि से सम्पन्न होना आवश्यक है बल्कि परम्परा तथा आधुनिक समस्या की गहरी पकड़ का होना भी उसके लिए अनिवार्य योग्यता है। ऐसे व्यक्ति को कुछ लोग प्रतिक्रियावादी, दुरूहतावादी, इतिहास-विलोपक कहते हैं, क्योंकि इस व्यक्ति के प्रयत्नों को प्राचीनता की ओर ले जाने के रूप में देखा जाता है। यहाँ मेरा प्रयत्न इसी दूसरी श्रेणी का है—लोग मुझे प्रतिक्रियावादी या साम्प्रदायिक (बौद्ध सम्प्रदाय की दृष्टि से वर्तमान को देखने के कारण) कहेंगे, इसका मुझे भय नहीं है । हाँ यह भय अवश्य है कि प्राचीन मत का जो नवीन सन्दर्भ में प्रयोग करने जा रहा हूँ, वह कहीं गलत न हो जाये।
व्यष्टि और समष्टि को लेकर जो प्रश्न आज उठाये जा रहे हैं, उनमें से दो प्रश्नों का विशेष दार्शनिक महत्व है। पहला प्रश्न व्यष्टि और समष्टि के निजी स्वरूप के बारे में है और दूसरा प्रश्न उनमें परस्पर सम्बन्ध के बारे में । ये दोनों प्रश्न एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। क्योंकि एक के उत्तर से दूसरे का बहुत हद तक समाधान हो जाता है । यदि व्यष्टि अपने आप में आधारभूत इकाई है तो समष्टि को इन इकाइयों का समूह मानना पड़ेगा। दूसरी ओर यदि समष्टि अपने आप में आधारभूत तत्त्व है तो व्यष्टि को उस समष्टि का प्रतिनिधि कहना पड़ेगा। व्यष्टि या समष्टि को आधारभूत तत्त्व मानने के पीछे कई बातें हो सकती हैं। समष्टिगत एक चरम तत्त्व की स्वीकृति जैसा अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है, समष्टि में दृश्यमान व्यष्टि के नानात्व की अस्वीकृति का कारण बनती है । व्यष्टि का व्यष्टित्व आभासमान और मिथ्या हो जाता है। इसी तरह व्यष्टि को अपने व्यष्टित्व में पूर्ण तत्त्व मानने पर समष्टि का समष्टित्व खण्डित हो जाता है और समष्टिगत प्रतीयमान एकत्व प्रतिभासित हो जाता है। एक तीसरा प्रकार व्यष्टि और समष्टि दोनों को समान रूप से आधारभूत मानकर उनमें सम्बन्ध सिद्ध करने का है। समष्टि या व्यष्टि का क्या स्वरूप है इस प्रश्न का निर्धारण बहुधा उनके यथार्थरूप का वस्तुपरक विश्लेषण करके नहीं किया जाता, बल्कि पहले से अभ्युपगत दार्शनिक, सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में ही उनके रूप का निर्धारण होता है। सभी अद्वैतवादी, जिनमें मार्क्स के अनुयायी भी आते हैं, नाना रूपों में भिन्नाकार दिखाई देने वाली व्यष्टियों को स्वतन्त्र मानने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि ऐसा करना अभ्युपगत अद्वैत दृष्टि का व्याघात होगा। इसलिए मूल्यों का निर्धारण करते हुए कर्तव्याकर्तव्य का विवेचन अन्ततोगत्वा सभो
परिसंवाद-२
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