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व्यष्टि और समष्टि : बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में
___डॉ० रामचन्द्र पाण्डेय ___ मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि व्यष्टि और समष्टि के स्वरूप में तथा उनके परस्पर सम्बन्ध के बारे में जो विचार यहाँ प्रस्तुत किया जायेगा, उसकी पृष्ठ-भूमि शुद्ध दर्शन की है । शुद्ध दर्शन से मेरा अभिप्राय ज्ञान-मीमांसीय एवं अस्तित्व-मीमांसीय विचारों से है। यों तो इतिहास, संगठन, धर्म-प्रचार, उपासना आदि दर्शन के अन्य आवश्यक अंग भी हैं, परन्तु इन अंगों पर भी विचार करने से शुद्ध दार्शनिक पक्ष से ध्यान हट जायेगा और एक सब से महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ का आवश्यक विशदीकरण अधूरा रह जायेगा। यही कारण है कि शुद्ध दर्शन-परक ग्रन्थों में इतिहास, संगठन, प्रचार आदि को नगण्य स्थान दिया गया है। . व्यष्टि और समष्टि का जो प्रत्यय हमारे मानस में बना है वह उसी रूप में बौद्ध दार्शनिकों के मानस में नहीं था। यदि रहा होता तो उस प्रत्यय के प्रयोग से उत्पन्न प्रश्नों की चर्चा उन दार्शनिकों ने अवश्य की होती। यदि आज हम व्यष्टिसमष्टि की बात उठाते हैं और उससे उत्पन्न प्रश्नों का समाधान बौद्धदर्शन के परिप्रेक्ष्य में ढूंढते हैं तो दो प्रकार की प्रतिक्रिया हो सकती है। कुछ लोग, जो परम्परा और शास्त्र के अक्षरार्थ से बाहर नहीं जाना चाहते, इस प्रश्न को उपहासास्पद बताते हुए कहेंगे कि जो प्रश्न आज उठ रहा है उसका समाधान सदियों पुराने दर्शन में कैसे मिल सकता है ? यह प्रयास, इन लोगों की दृष्टि में, वेदों में बिजली, आणविक अस्त्र आदि के ज्ञान को ढूँढने के समान है अथवा दल-बदल, मतदान, चुनाव के द्वारा सरकार का गठन आदि समस्याओं पर त्रिपिटिक का मत ढूँढने के समान है। इस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले लोग, यह मानकर चलते हैं कि बौद्धदर्शन या कोई अन्य प्राचीन दर्शन एक बन्द घर के समान है, जिसमें रखी वस्तुएँ न तो बाहर आ सकती हैं और न बाहर की वस्तुएँ भीतर जा सकती हैं। अध्येता का एकमात्र कर्तव्य है उन भीतर रखी वस्तुओं की विस्तृत सूची का निर्माण करना। इसके विपरीत कुछ दूसरे प्रकार के लोग दर्शनमात्र को एक खुली पुस्तक की तरह मानते हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान कभी पुराना नहीं होता, उसका प्रयोग पुराना हो सकता है, पर पुराने ज्ञान का नूतन प्रयोग ज्ञान की सबसे बड़ी क्षमता है। यदि आज के सन्दर्भ में कुछ नये प्रत्यय आये हैं, और नये प्रश्न उठे हैं तो प्राचीन ज्ञान को नये सन्दर्भ में
परिसंवाद-२
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