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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ अपितु अन्य व्यक्ति, समाज या संगठन में किस प्रकार का व्यवस्थात्मक जीवन बिताना चाहिए, इसकी भी स्पष्ट झलक मिलती है।
किसी भी व्यक्ति के भिक्षु-संघ में प्रवेश होने से समाज में अव्यवस्था न फैलने पावे, इसे रोकने के लिए तथा अनागारिक (भिक्षु) होने के लिए भी शर्ते हैं । जैसे-मातापिता की आज्ञा प्राप्त करना, राजकर्मचारी न होना, किसी का ऋणी न होना, किसी तरह के अपराध का दोषी न घोषित होना इत्यादि।
. इन बातों से इन तथ्यों का और भी स्पष्ट आभास मिलता है कि एक व्यक्ति को उपसम्पन्न या परिब्राजक होने के लिए कितने सामाजिक अपवादों से मुक्त होना पड़ता है। यद्यपि माता-पिता की आज्ञा प्राप्त न हो तो भी उस व्यक्ति के श्रद्धा, विश्वास, ज्ञान आदि में कोई अन्तर नहीं आने वाला है, तथापि विनय के नियमानुसार इसे एक अपराध माना गया है । इस प्रकार किसी का ऋणी हो, राजदण्ड विधान के अनुसार दोषी हो इत्यादि भी यहाँ अपराध की कोटि में रखा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्यव्यवस्था, पारिवारिकव्यवस्था आदि प्रायः सभी सामाजिकव्यवस्था और तत्सम्बन्धित समाज, भिक्षु-संघ एवं उसके जीवन को प्रभावित करते हैं । दूसरी ओर अन्य सामाजिक संगठनों एवं व्यवस्थाओं को भी संघ प्रभावित करता है।
भिक्षु-संघ में प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् संघ और व्यक्ति के बीच की व्यवस्था में व्यवधान न आये इसे रोकने के लिए प्रव्रज्यार्थी का निरोग और अविकलांग इत्यादि होना अन्य प्रकार की शर्ते हैं।
विनय के नियम प्रायः सामाजिक अपवाद (निन्दादि दोष) से बचने के लिए ही बनाये गये । इससे यह सिद्ध है कि भिक्षु और संघ दोनों द्वारा समाज के साथ उनके सुखकर सम्बन्ध स्थापित रखने की अनिवार्यता पर बल दिया गया है।
__जहाँ तक भिक्षु-संघ की आन्तरिक व्यवस्था का प्रश्न है त्रिचीवर या त्रयोदश जीवनोपकरण के अतिरिक्त निजी सम्पत्ति न रखना, एक समय के भोजन के सिवाय सञ्चय न करना, मुद्रा-रत्न आदि के स्पर्श को वर्ण्य मानना आदि आवश्यक नियम हैं। इन नियमों से वित्तीय सम्पत्ति की दृष्टि से न्यूनतम आवश्यकताओं तक ही सीमित रहना और समस्त भिक्षुओं के लाभ तथा सम्पत्ति की समता के ऊपर विशेष बल देना, संघ के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। इससे एक आदर्श समाज की कल्पना स्वतः मन में बैठ जाती है।
केवल शरीर रक्षा के लिए भिक्षावृत्ति को विनय ने स्वीकार किया, फिर भी भिक्षु समाज पर आर्थिक बोझ न बने, इस पर विशेष ध्यान दिया गया है। शीलवान् परिसंवाद -२
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