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बौद्ध विनय की दृष्टि में व्यष्टि एवं समष्टि
प्रो० समदोड़ रिनपोछे तथा आचार्य सेम्पा दोर्जे
व्यक्ति और समाज
'विनय पिटक' अथवा किसी अन्य बौद्ध वाङ्मय में व्यक्ति और समाज व्यवस्था अथवा समष्टि व्यष्टि का व्याख्यान जैसा पाश्चात्त्य - समाज - दार्शनिकों द्वारा हुआ, वैसा ही ढूँढ़ने का प्रयास करें तो कुछ मिलेगा, ऐसा नहीं लगता । बौद्ध वाङ्मय निर्वाणमूलक है और पाश्चात्त्य सामाजिक- दर्शन भौतिक अथवा लोकमूल्यात्मक हैं । इस तरह अत्यन्त पृथक् दिशाओं में जाने वाले दो प्रकार के वाङ्मयों में समता की खोज करना, विशेष उपलब्धि-जनक नहीं प्रतीत होता है ।
विनय में भिक्षु संघ की संरचना और व्यवस्था तथा व्यक्ति भिक्षु और भिक्षुसंघ के सम्बन्धों का जो वर्णन मिलता है, वह एक विशेष समुदाय या संगठन की व्यवस्था है । व्यापक, सामाजिक धरातल अथवा व्यक्ति के सन्दर्भ में वह कहाँ तक प्रयुक्त हो सकता है, इसमें संशय है । फिर भी भिक्षु संघ एक संघ (संघात = समूह ) ही तो है, जो व्यक्तियों से बना है । इस दृष्टि से व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों पर व्यापक रूप से विचार करने पर कुछ संकेत निकल सकते हैं ।
बौद्ध विचार में व्यक्ति जीव (पुद्गल) की विस्तृत व्याख्या मिलती है । 'जीव' दो प्रकार से पारिभाषित है - (क) शुद्ध दार्शनिक तत्त्व तथा (ख) व्यावहारिक व्यक्ति के रूप में शुद्ध दार्शनिक तत्त्व वाले 'पुद्गल' या 'जीव' की व्याख्या यहाँ अपेक्षित नहीं है । अतः यहाँ व्यावहारिक व्यक्ति के सम्बन्ध में ही कुछ विचार किया जा रहा है ।
व्यावहारिक जीव वह प्राणी है, जो जीने की इच्छा से सब कार्य करता है, उसकी सम्पूर्ण जीवन प्रक्रिया इसी 'जिजीविषा' पर आधारित है । इस इच्छा के साधन के रूप में अपने प्रयत्न और दूसरों के सहयोग की ओर उसकी प्रवृत्ति बराबर बनी रहती है और उनसे सम्बन्धित क्रिया-समूह ही उसका जीवन बन जाया करता है । इस सिद्धान्त के अनुसार विनय से सम्बन्धित व्यवस्थाओं में व्यक्ति (पुद्गल) और संघ की युगल - व्यवस्था हर जगह पायी जाती है ।
संघ के घटक-तत्त्व व्यक्ति का अस्तित्व संघ की अपेक्षा विशेष है । व्यक्ति के जीवन एवं उसके आदर्शों के अनुरूप ही संघ की व्यवस्था हुई, क्योंकि व्यक्ति का मूल
परिसंवाद - २
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