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बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यक्ति एवं समाज
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वस्तुएँ प्रतीत्यसमुत्पन्न होती हैं । अर्थात् अन्य हेतुओं और प्रत्ययों की अपेक्षा से व्यवहार का विषय होती है । इसका आशय यह है कि माध्यमिक प्रतीत्यसमुत्पन्न धर्मों का सांव्यवहारिक या सांवृतिक अस्तित्व मानते हैं । जो पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं है, जैसे नित्य आत्मा, ईश्वर आदि; उनका सांव्यवहारिक अस्तित्व भी इनके यहाँ मान्य नहीं है । इनके मत में अन्य बौद्धों की भाँति पुद्गल भी व्यवहारसत् या संवृतिसत् मात्र है । फिर भी अन्य बौद्धों से इनकी कुछ विशेषता होती है । जब कि माध्यमिकेतर बौद्ध पुद्गल के अधिष्ठानभूत पाँच स्कन्धों की पारमार्थिक सत्ता मानते हैं, ये लोग उन्हें भी पुद्गल की ही भाँति व्यवहारसत् मात्र ही मानते हैं । इन्हीं मूलभूत मान्यताओं के अन्तर्गत माध्यमिक लोक, परलोक, संसार, मोक्ष आदि की समस्त व्यवस्था सुचारु रूप से सम्पन्न करते हैं । पुद्गल की भाँति इनके मत में समाज की भी सांव्यावहारिक सत्ता होती है तथा व्यक्ति और समाज के बीच का सम्बन्ध परस्पर सापेक्षता का सम्बन्ध ही माना जाता है ।
इस निबन्ध द्वारा बौद्ध दृष्टि से व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्ध के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत किये गये हैं । आशा है, इससे आधुनिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में इन विषयों पर विचार करने में विद्वानों को सुविधा होगी ।
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परिसंवाद - २
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