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जैनदर्शन के सन्दर्भ में समता के विचार
डॉ० गोकुलचन्द्र जैन भारतीय मनीषा ने दर्शन, धर्म और संस्कृतिविषयक जो चिन्तन दिया, उसमें जैन दर्शन, जैनधर्म और जैन संस्कृति का विशिष्ट स्थान है । सामाजिक समता के सन्दर्भ में तीर्थंकरों के चिन्तन की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
__ जैन चिन्तन अपने सुदूर अतीत में 'श्रमण' नाम से अभिहित होता रहा है। सम = शान्ति और सम = श्रम की आधारशिला पर निर्मित जैन धर्म और दर्शन का भव्य प्रासाद समग्र समता की एक सम्पूर्ण आचार संहिता का कीर्तिमन्दिर है । जन्म को जाति का आधार न मानने वाले जैनधर्म के जन्मजात अनुयायियों का जो स्वरूप आज हमारी आँखों के सामने है, उसे पूरी तरह नजरंदाज किये बिना भी हम आपको अतीत की उस उर्वरा धरती का स्पर्श करा देना चाहते हैं जिसमें श्रमण संस्कृति का अंकुर प्रस्फुटित हुआ।
प्राचीन जैन ग्रन्थों में 'सम' और 'समता' शब्दों का कई अर्थों में प्रयोग हुआ है । जैसेपाइअसहमहण्णवो में
सम (शम्)-शान्त होना, उपशान्त होना, नष्ट होना। सम (शमय)-उपशान्त करना, नाश करना, दबाना। सम (श्रम)-परिश्रम, आयास, खेद, थकावट। सम (शम)-शान्ति, प्रशम, क्रोध आदि का निग्रह । सम (सम)-समान, तुल्य, सरीखा, तटस्थ, मध्यस्थ, उदासीन, रागद्वेष से
रहित। समता (समया)-रागद्वेष का अभाव, मध्यस्थता ।
इन प्रयोगों से हमें यह समझने में सरलता होती है कि 'समता' की अवधारणा क्या है।
__ जैन चिन्तन की यह फलश्रुति है कि समता का मूल आधार है स्वातन्त्र्य, और सामान्य की अनुभूति । पारतन्त्र्य चाहे वह परिवार का हो, मालिक का हो या भले ही ईश्वर का क्यों न हो, समता के मार्ग में बहुत बड़ा व्यवधान है। यहाँ तक परिसंवाद-२
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