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भारतीय शास्त्रों में समता
२८७ विषमताओं को दूर करने में सहायक हो सकता है। इसी प्रकार संन्यास निःस्वार्थ समाज सेवा और बिना पारिश्रमिक ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए मार्ग प्रदर्शक बन समता का आधार प्रस्तुत कर सकता है। वर्ण व्यवस्था में भी एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त निहित है जो आज के सन्दर्भ में अत्यन्त आवश्यक लगता है, वह है प्रत्येक व्यक्ति को व्यवसाय की सुविधा प्रदान करने का सिद्धान्त । वर्ण व्यवस्था के इस व्यवसायात्मक या कर्मात्मक सिद्धान्त का क्रियान्वयन आधुनिक सन्दर्भ में बेकारी की समस्या का समाधान प्रस्तुत कर सामाजिक समता के लिए नवीन आयाम दे सकता है। विक्रय के स्थान पर दान का महत्त्व
शास्त्रों में दान की बड़ी महिमा बतलाई गयी है और कुछ जीवनोपयोगी अत्यन्त आवश्यक वस्तुओं को विक्रय वर्जित किन्तु दान का विषय माना गया है। यदि आधुनिक सन्दर्भ में कम-से-कम भोजन सामग्रियों को विक्रय वजित बना दिया जाय तो सामाजिक समता की स्थापना का महत्त्वपूर्ण द्वार खुल जाय। इसी प्रकार दर्शनों में निर्दिष्ट अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि व्रतों, सम्यक्दृष्टि, सम्यक् आजीव आदि मार्गों तथा मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि साधनाओं को व्यक्तिगत जीवन से ऊपर उठाकर इन्हें सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न हो तो सामाजिक समता के संस्थापन में हमारे दर्शनों का स्वर बुलन्द हो सकता है।
परिसंवाद-२
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