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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
लक्षण की समता का सिद्धान्त उपस्थित करता है। अन्य सभी दर्शन इन्हीं दो चरम पन्थों में कम या अधिक आग्रह के आधार पर रखे जा सकते हैं ।
प्रायः सभी दर्शन कर्मवाद को स्वीकार कर समाज में विद्यमान समस्त विषमताओं के औचित्य का प्रतिपादन करते हैं तथा कर्म स्वातन्त्र या विवेक के आधार पर स्वकर्म फल भोक्तृत्व रूप समत्व का समर्थन भी करते हैं।
प्रायः इन सभी दर्शनों में जीवन के आदर्श के रूप में वैराग्य या जीवन की अनेकानेक जटिल समस्या के प्रति उपेक्षा या उदासीनता को विशेष महत्व दिया गया है। इनमें आध्यात्म के प्रति जितनी ही अधिक जागरूकता, सतर्कता एवं तत्परता दीखती है, सामाजिकता के सन्दर्भ में उतनी ही अधिक उदासीनता, उपेक्षा और अकर्मण्यता। यही कारण है कि धर्म और मोक्ष के सन्दर्भ में जितने विकल्प, पक्ष, प्रतिपक्ष, मत, मतान्तर उपस्थित किए जा सके हैं उतने अर्थ और काम के सम्बन्ध में नहीं।
भारतीय समकालीन दर्शनों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समकालीन दार्शनिक विवेकानन्द, दयानन्द, अरविन्द आदि विद्वान् अपने दर्शन की इस कमी से भलीभाँति परिचित हैं तथा इसे यथासम्भव दूर करने के लिए प्रयत्नशील भी हैं । यही कारण है कि इन दार्शनिकों ने अध्यात्म और जीवन, परमार्थ और व्यवहार, परलोक और इहलोक, व्यक्तिगत लक्ष्य, मोक्ष और सामाजिक लक्ष्य समता में यथा सम्भव समन्वय करने का प्रयत्न किया है।
जब हम उक्त द्वितीय पक्ष को ध्यान में रखकर विचार करते हैं तो लगता है कि इन दर्शनों के उदय एवं विकास काल में एक सामाजिक व्यवस्था थी, जो 'वर्णाश्रम धर्म' के नाम से अभिहित होती थी। उस व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्त्व थे और उसको पुष्ट करने के लिए इन दर्शनों ने कुछ ऐसे आचरणों का निर्माण करना चाहा जो आधुनिक सामाजिक समता के लिए मार्ग निर्देशक के रूप में आवश्यक प्रतीत होते हैं। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हम कुछ उदाहरणों को सामने रखना चाहेंगे। यदि आश्रम व्यवस्था के ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रम को उनके अन्तर्गत निहित सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उनसे निकलने वाले सिद्धान्त एक व्यापक समता का आधार प्रस्तुत करते हैं । जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था और वानप्रस्थ आश्रम का स्वेच्छया स्वाधिकार का परित्याग। आज के सन्दर्भ में सभी को निःशुल्क समान शिक्षा की व्यवस्था और एक निश्चित् वय के बाद आधिकारिक एवं लाभप्रद पदों का परित्याग अनेक सामाजिक
परिसंवाद-२
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