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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ?
२६३ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥' महायान भी बुद्धों और सत्त्वधातु की तात्त्विक अभिन्नता के आधार पर जीवों में समता-भाव का आधार पा लेता है
बुद्धानां सत्त्वधातोश् च येनाभिन्नत्वमर्थतः।
आत्मनश् च परेषां च समता तेन ते मता ॥२ यह दृष्टि सम-दर्शन, सम-दर्शिता का ठोस आधार है। यह सामाजिक समता के सिद्धान्त और व्यवहार को भी ठोस आधार प्रदान कर सकती है।
कहना नहीं होगा कि कोई एक भारतीय दर्शन, अथवा दर्शन इन सभी शर्तों को पूरी नहीं करता, सभी अर्हताओं से मण्डित नहीं दिखायी देता । अतः संस्कृत के ग्रन्थों में इतस्ततः विकीर्ण सूक्तियों से झट निष्कर्ष निकाल कर भारत की दार्शनिक प्रतिभा पर कोई हुक्म नहीं लगा देना चाहिए, बल्कि उस प्रतिभा के गठन का विश्लेषण करके ही कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए।
१. गीता ६.३२।
२. चतुःशतक ३.४० ।
परिसंवाद-२
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