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भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ?
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शूद्रं तु कारमेद् दास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा। दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयम्भुवा ॥ न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद् विमुच्यते।
निसर्गजं हि तत् तस्य कस् तस्मात् तदपोहति ॥' अर्थात् शूद्र चाहे क्रीत हो चाहे अक्रीत, चाहे स्वामी की सेवा में हो, चाहे स्वामी ने उसे मुक्त कर दिया हो, उससे दासता ही करानी चाहिए, क्योंकि विधाता ने उसे उत्पन्न ही जब दासता के लिये किया है। भला प्रकृति को कौन बदल सकता है ?
पाप के फलस्वरूप जीवात्मा की जब मध्यमा तामसी गति होती है तभी वह हाथी, घोड़े, सिंह, व्याघ्र, वराह और गहित म्लेच्छों के साथ-साथ शूद्र के रूप में जन्म पाता है
हस्तिनश् च, तुरङ्गाश् च, शूद्रा, म्लेच्छाश् च गहिताः।
सिंहा, व्याघ्रा, वराहाश् च मध्यमा तामसी गतिः ॥२ यह भी मान्यता है कि आज का चण्डाल अथवा पुक्कस पिछले जन्म में ब्रह्महत्यारा था
श्व-सकर-खरोष्ट्राणां, गो-जावि-मृग-पक्षिणाम् ।
चण्डाल-पुक्कसानां च ब्रह्महा योनिमृच्छति ॥ कर्म-सिद्धान्त के स्तर पर वैदिक, बौद्ध और जैन बराबर हैं, ये सभी उसके पोषक हैं । अतः वे सामाजिक विषमता का पोषण और उपोद्वलन ही कर सकते हैं। यह तो कहिए कि कर्म-सिद्धान्त के इस निहितार्थ पर प्रायः विचार ही नहीं किया जाता, अन्यथा समाज से समता की भावना के साथ-साथ भूत-दया का भी लोप हो जाय। पीड़ित-शोषित पर दया का औचित्य तभी बनेगा, जब हम आश्वस्त हों कि उसे जो पीड़ा मिल रही है वह उसे नहीं मिलनी चाहिए, और जो उसके साथ अन्याय हो रहा है और जब सिद्धान्त यह है कि उसकी पीड़ा विधाता के न्याय का नमूना है तो उसके प्रति दया उमड़ने के बदले विधाता की न्यायप्रियता के प्रति उछाह उमड़ने लगेगा। समता की संभावनायें
आइए, लगे हाथों किञ्चित् इसपर भी विचार करते चलें, कि कैसा दर्शन सामाजिक समता का साधक-पोषक हो सकता है। ऐसे दर्शन की प्रथम अर्हता तो यह हो १. तत्रव ८.४१३-४१४ । २. तत्रैव १२.४३ । ३. तत्रैव १२.५५ ।
परिसंवाद-२
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