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सामाजिक समता का प्रश्न : प्राचीन एवं नवीन
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कहना नहीं है कि सामाजिक समता विषमता के प्रश्न पर परम्परागत कर्मवादी मान्यताओं का जन-मानस पर प्रधान रूप से प्रभाव रहता है। इसलिए नये संदर्भ में कर्मवाद की पुनः परीक्षा करनी होगी । कर्मों का दृष्ट अदृष्ट के रूप में अनिवार्य रूप से विभाजन करना अपेक्षित है या नहीं, यदि है; तो अदृष्ट की कोटि में जितने का समावेश किया जाता है उसका ज्ञान, विज्ञान की नई प्रगति में कितना औचित्य है, इसका भी निर्णय करना होगा । गीताकार ने कर्म, अकर्म और विकर्म के विभाजन की चेष्टा की है । अन्त में अपनी दृष्टि से उन्होंने कहा है कि कर्मों का निर्धारण बहुत ही गहन है - 'गहना कर्मणो गतिः' । भगवान् बुद्ध और महावीर ने इस प्रश्न को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है । उनके विश्लेषण आज भी यथासम्भव हमारे दिशानिर्देशक हो सकते हैं । वास्तव में नई दुनियाँ में दूरी के कम हो जाने से तथा सम्बन्धों
सूक्ष्म एवं संश्लिष्ट होते जाने से सामूहिक कर्मों का प्रभाव इस मात्रा में व्यापक होता जा रहा है, जिसके फल का भोग आज व्यक्ति को करना पड़ रहा है । इस स्थिति में कर्मफल का व्यक्तिगत विश्लेषण करना किस मात्रा तक उचित होगा, यह बहुत ही विचारणीय है ।
भारतीय सन्दर्भ में सामाजिक समता के प्रश्न की अग्रिम सम्भावनाओं पर विद्वानों का विचार जानने के लिए ऊपर कुछ मुद्दों को उठाया गया है । आशा है विद्वज्जन अपने विचारविमर्श द्वारा इसे एक समुचित दिशा प्रदान करेंगे ।
- प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय
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परिसंवाद - २
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