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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ यह कहना सही नहीं होगा कि विविध एवं विराट भारतीय समाज में पिछले सहस्रों वर्षों तक समतावादी मूल्यों के अभाव में ही यहाँ का व्यक्ति जीवन यापन करता रहा है । अवश्य ही भारतीय जीवन में भी एक प्रकार की समता का विकास हुआ था, जिसके आधार पर अधिकांश के सामूहिक जीवन में सामञ्जस्य बना रहा। किन्तु आज की मान्यताओं के अनुसार उसे सामाजिक समता की श्रणी में रखना कठिन होगा। इसका प्रमुख कारण है:-भिन्न-भिन्न जीवन दृष्टि, अतः उसका भेद सैद्धान्तिक है। आधुनिक चिन्तकों के विचार में उपर्युक्त सभी अवधारणाओं का उद्गम-स्रोत मानव है, ईश्वर, आत्मा या धर्म नहीं है । यह मानव भी सिद्ध मानव नहीं है, न केवल वह साधन मात्र है। यह साध्य एवं साधन दोनों है। कहा जा सकता है कि यह वर्ण, जाति, लिङ्ग, देश, धर्म आदि से निरपेक्ष मानव है। यह रहस्य या परलोक आदि से सम्बन्धित मानव नहीं, अपितु एकमात्र ऐहिक है। इस प्रकार के मानव से सम्बन्धित नैतिकता जैसे समता और स्वतन्त्रता आदि का उत्स समाज है। इसीलिए समता एवं स्वतंत्रता भी उपार्जित मानी जाती है । वह काल्पनिक, रहस्यमय एवं समाज-निरपेक्ष नहीं है। समता एवं स्वतन्त्रता को यदि धार्मिकता का मूल्य प्रदान करना चाहें तो उसका अभिप्राय मात्र इतना होगा कि इसके पीछे सामाजिकविवेक है, और विवेक धर्म का सहचारी है। विवेक पर आधारित यह सामाजिक समता किसी भी स्थिति में सिद्ध वस्तु नहीं, अपितु साध्य है।
भारतीय सन्दर्भ में उक्त से भिन्न समता का मुख्यतः विकास आध्यात्मिक हुआ है। किन्तु आध्यात्मिक होने मात्र से उसका सम्बन्ध समाज से सर्वथा कट नहीं जाता, क्योंकि आध्यात्मिकता एवं व्यावहारिकता के बीच कोई अत्यन्त विभाजक रेखा खींच देना सम्भव नहीं है। भारतीय चिन्तन में आध्यात्मिकता भी किसी एक ही प्रकार की नहीं है, जिसके आधार पर निर्णय कर लिया जाय कि आध्यात्मिकता सदा व्यवहार से विमुख दिशा में रहती है। एक ओर ईश्वर, आत्मा और नित्यता आदि के तात्त्विक आधार पर अध्यात्म की व्याख्या की जाती है, तो दूसरी ओर अनीश्वर, अनात्म और अनित्यता के आधार पर अध्यात्म की पारमार्थिकता खड़ी की जाती है। अनात्मवादी धारा में ईश्वर और आत्मा आदि के न मानने के कारण परिशेषतः मानव महत्त्व बढ़ जाता है। उस स्थिति में मानव-केन्द्रित नीति, धर्म एवं संस्कृति की व्याख्या सरल हो जाती है । ईश्वर एवं आत्मवादी भी अद्वितीय ब्रह्मवाद के आधार पर व्यक्ति को ब्रह्म से अभिन्न मानकर मानव को यथासम्भव महत्त्वशाली बनाने की चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार अनात्मता या आत्मौपम्य के आधार पर भारतीय चिन्तकों द्वारा एक प्रकार से समानता की अवधारणा खड़ी की जाती है। एक
परिसंवाद-२
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