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तन्त्रों में स्त्री, शूद्रों के लिए भक्ति एवं शरणागति के द्वार का उद्घाटन किया गया। इतना होते हए भी सामाजिक विषमता को दूर करने की दिशा में कोई सफलता नहीं मिली। इस बात का प्रमुख कारण यह है कि ये सिद्धान्त मन्वादि स्मतियों का स्थान नहीं ले सके। इसके विपरीत परवर्ती काल में ये तान्त्रिक मन्वादि से अपने को अविरोधी स्थापित करने में लग गये ( डॉ० अशोक कुमार कालिया)।
तान्त्रिक दर्शनों में द्वैतवादी या अद्वैतवादी सभी ने वेदान्त के मायावाद को अस्वीकार करके स्वातन्त्र्य, समता और व्यक्ति के आत्म प्रत्यभिज्ञान के सिद्धान्त को स्थापित किया। इस स्थिति में यह कहा जा सकता है कि तान्त्रिकों ने दो सत्यों के विरोध को यथासंभव दूर करने का प्रयास किया। श्रमणविद्याओं के विद्वानों का इस प्रश्न पर कुछ भिन्न मत है । एक ओर तो वे सैद्धान्तिक आधार पर दो सत्यों का ऐकान्तिक विरोध स्वीकार नहीं करते और दूसरी ओर जगत के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध करुणा, समता आदि गुणों को वे तात्त्विक शून्यता या अनैकान्तिकता के सिद्धान्त से जोड़ते हैं। जो है वह प्रतीत्यसमुत्पन्न है, शून्यता उसका निषेध नहीं करती, प्रत्युत उसकी स्वभावसत्ता का निषेध करती है । इस विधि से जगत का त्याग नहीं संग्रह किया जाता है, जगत में दुःख है इसलिए करुणा उत्पन्न होती है, वह जगत के सम्बन्धों को जोड़ती है। समता का कोई तात्त्विक अस्तित्व नहीं, बल्कि विषमता का अभाव है (श्रीरामशंकर त्रिपाठी)। जैन दृष्टि से कहा गया कि समता का मूल आधार व्यक्ति का स्वातन्त्र्य और सामान्य की अनुभूति है। विशेष की निरपेक्ष अवधारणा विषमता की जननी है । अनेकान्त की सापेक्षता व्यक्ति समाज के वीच सम्बन्ध स्थापित करती है और समता के लिए अवसर प्रदान करती है (डा० गोकुल चन्द्र जैन)। जैन-बौद्ध दोनों ही यतः सृष्टि में मानव का सर्वश्रेष्ठ महत्त्व स्वीकार करते हैं, इसलिए उसकी स्वतन्त्रता स्वीकार करने में उन्हें अधिक कठिनाई नहीं है। __समता से सम्बन्धित विचार विमर्श के प्रसंग में वर्णाश्रमधर्म के पक्षपाती विद्वानों ने भी अपना शास्त्राधारित मत प्रस्तुत किया। कहा गया कि वणश्रिम के अनुसार अपने अपने विहित कर्मों को करना ही समाज व्यवहार है । अधिकारों के अतिक्रमण से ही वैषम्य बुद्धि उत्पन्न होती है। समत्वदृष्टि भावना बल से उत्पन्न की जाती है। इसलिए उसमें वर्णाश्रम धर्म कहीं बाधक नहीं होता । पारमार्थिक दशा की समता दृष्टि किसी प्रकार व्यावहारिक नहीं है और समता की व्यावहारिक स्थिति पारमार्थिक दृष्टि का बाधक भी नहीं है। कहा गया कि इस व्यवस्था के लिए मीमांसा दर्शन की सरणी ही उपयुक्त है और व्यवहार में यदि कुमारिल भट्ट का अनुसरण किया जाय तो जगत जीव के सम्बन्ध में मिथ्यावादी वेदान्त भी इसमें कथंचित सहायक हो सकता है किन्तु अनात्मनादी, शून्यवादी बौद्धदर्शन तो कथमपि नहीं। मीमांसा दर्शन समतावाद के अधिक समीप इसलिए है कि वह इतिकर्तव्यता का निर्धारण कर वर्णाश्रम धर्म के परिपालन में लोगों को नियत करता है और समाज
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