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व्यक्ति और समाज : बौद्ध दृष्टि का एक वैज्ञानिक विश्लेषण
१८३ सूक्ष्म है, प्रयोग बड़ा कठिन है। यह संसार का त्याग नहीं, साधनों की दासता का त्याग है। यह है निर्ममत्व का मार्ग। संसार को भोगना मना नहीं, मना है उससे चिपकना। हमारी सभ्यता तृष्णा का विकास है भगवान बुद्ध का मार्ग संयम का विकास है। इसमें तृष्णा और तृप्ति का समन्वय है, योग-भोग का सन्तुलन है, मैं और मेरा का सामञ्जस्य है। यही है उनका जीवन-विज्ञान। उससे केवल जी ही सकते हैं। आत्मशोधन उनके मार्ग का प्राथमिक प्रतिबन्ध है, उनके जीवन दर्शन को समझने सीखने और व्यवहार में लाने का एक मात्र साधन है। समाधान की दिशा
यदि व्यक्ति का ही सारा खेल है तो उसे अपने महान उत्तरदायित्व को पहचानना होगा। यह है तो अप्रिय सत्य कि मनुष्य स्वभाव से जानवर है, पर उसके मस्तिष्क की विशेषता भी तो उसका गुण है। उसे सोचना है कि वह शरीर के आदेशों का पालन करके जानवर ही बना रहे या अपने जानवर-मन से लड़कर मनुष्य बनने का प्रयास करे। उसे लड़ना होगा और जीतना होगा अपने भीतर के जन्तुसंवेगों को। उसे जानवर को पीछे छोड़ने के लिए अपने शारीरिक सुख को राजस्व के रूप में देना होगा। प्रकृति के विरुद्ध तो वह बहुत लड़ चुका, अब उसे अपने ही से संघर्ष करना होगा। यह कार्य भगवान का नहीं, समाज का भी नहीं, केवल व्यक्ति का होगा। विकास केवल व्यक्तिगत प्रयास से होता है। मनुष्य उद्विकास का अन्त नहीं, वह तो केवल जानवर की स्मृतियों से लदे भूत और आशा भरे भविष्य के बीच की कड़ी है। इसका उद्देश्य है एक नवीन जीव की उत्पत्ति जो आनुवंशिक दासता के परे हो, जन्तु संवेगों से रहित हो। यह सच है, हम अनेकता को मिटा तो नहीं सकते पर अन्यों के प्रति दया, करुणा, सहानुभूति तो रख सकते हैं। स्वार्थपूर्ण वासनाओं का संयमन करके आत्मरति के स्थान पर आत्मसंयम तो ला सकते हैं । 'मैं' और 'त' का स्वस्थ समन्वय तो कर सकते हैं। व्यक्ति बदला कि समाज बदला । आत्मसाधक ही सच्चा समाज सुधारक होता है।
____ इसके लिए हमें जाना होगा महान मनीषी भगवान बुद्ध की शरण में, जिन्होंने आज से २५०० वर्ष से अधिक हुए, इस रोग की रामवाण औषधि का आविष्कार किया था। उनके जीवन दर्शन में जीवन की सभी विसंगतियों का समचित समाधान है, वैयक्तिक मूल्यों के प्रति उदार दृष्टि रखने का हर सम्भव प्रयास है, एकात्मता का समग्रबोध है, ममत्व विसर्जन का मार्ग है, व्यष्टि-समष्टि सम्बन्धों का सम्यक् विवेचन है और है त्यागमय भोग की आचार संहिता। उनके विचार
परिसंवाद-२
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