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परम्परागत व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध : मानवविज्ञान दृष्टि
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इनमें भी दो माडल्स हैं। एक माडल है बौद्ध धर्म का जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों का, भिक्षुओं का, संघ बना है। बाद में इसका अनुसरण किया ईसाई मिशिनरियों ने, और फिर शंकराचार्य तथा अन्य ब्राह्मणव्यवस्था ने। भिक्षुसंघ तथा शंकराचार्य द्वारा संघटित दशनामी संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों का संघटन एक नया समाज का रूप ले लेता है। वे आपस में एक दूसरे से सम्बन्धों से बँध जाते हैं । एक परिवार और कुल की व्यवस्था बनाते हैं । वहाँ गुरु पिता का रूप है, गुरु का गुरु दादा गरु कहलाता है, गुरु के अन्य शिष्यों के साथ गुरुभाई-गुरुबहिन का सम्बन्ध होता है। वे कहते हैं कि उनका समाज नादवंश से चलता है और गृहस्थों का समाज विन्द वंश से । इस प्रकार आधुनिक साधु समाज का जो गठन हुआ है उसके मूल में बौद्ध भिक्षुसंघ का माडल है । भिक्षुसंघ एक आचारसंहिता से बँधा है, और उसका परम कर्तव्य है लोक कल्याण, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय । इसी प्रसङ्ग में बौद्धों ने संसार को एक सर्वोत्कृष्ट अवधारणा दी है वह अवधारणा है बोधिसत्त्व की। उस परम करुणामय की कल्पना का जो अपने को निर्वाण से वंचित रखता है, जब तक समाज का आखरी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेता । संसार के विचारों के इतिहास में यह अद्वितीयस्थान है । इसी करुणामय की अवधारणा आगे चलकर ईसामसीह के व्यक्तित्व में साकार हुई। किन्तु इस व्यवस्था में इन विशिष्ट व्यक्तियों का साधारण व्यक्ति से क्रियात्मक रूप से कोई तात्त्विक भेद नहीं है। दोनों समाज की व्यवस्था को कुशल एवं श्रेष्ठ बनाने के लिए क्रियाशील रहते हैं । हम यह अवश्य कह सकते हैं कि विशिष्ट व्यक्ति साधारण व्यक्ति को एक निश्चित नैतिक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरक होता है। इस व्यवस्था में सामाजिक कर्तव्य और अध्यात्म का कर्तव्य क्षेत्र अलग नहीं है। इसी से जुड़ी हुई ब्राह्मण परम्परा की जीवनमुक्ति की अवधारणा है, जिसमें गृहस्थाश्रम में रहकर, अर्थात् सामाजिक सम्बन्धों का पालन करते हुए, मनुष्य दिव्य स्थिति को प्राप्त करता है।
एक दूसरा माडल है ब्राह्मण वैराग्य का, जिसकी हमने अभी-अभी चर्चा की थी। इसमें विशिष्ट व्यक्ति सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। वह व्यक्तिगत मोक्ष की कामना करता है, और उस साधना में वह समाज के बन्धनों और कर्तव्यों से मुक्त हो जाता है। वह व्यक्ति अनसोसल (समाज निरपेक्ष) हो जाता है एण्टी सोसल (असामाजिक) नहीं। वह समाज सुधारक का रोल अदा नहीं करता । वास्तविक रूप से अर्थात् क्रियात्मक रूप से वह अन्य व्यक्तियों से भिन्न है। वह समाज से अलग है फिर भी समाज में उसके लिए सर्वोच्च स्थान है। वह समाज के सारे बन्धनों और मूल्यों को
परिसंवाद-२
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