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बौद्धदर्शन तथा रसेल के चिन्तन में व्यष्टि एवं समष्टि का स्वरूप उससे बहिर्भत तत्त्वों के द्वारा निर्धारित मानना तर्कसंगत नहीं है। एकत्व तत्त्व के समर्थनार्थ यह भी कहा जाता है कि वैशेषिक जैसे यथार्थवादियों के समान द्रव्य या आधार सत्, गुण या आधेय सत्, कर्म या परिवर्तमान सार, सामान्य या नित्य अनुगतसार ऐसी विभिन्न सत्ताओं के स्वीकार से एक सर्वानुगामी सत् का स्वीकार लघु है। इस पर व्यष्टिवादी यह प्रतिवाद कर सकते हैं कि सत् की आनुभविक विविधता को अनानुभविक एकता के द्वारा समझने का प्रयास उचित हो तो किस प्रकार के सत् का माडल भिन्न-भिन्न सत्ताओं के स्पष्टीकरण के लिए पर्याप्त है यह करना कठिन हो जायेगा। सभी सत्ताओं को द्रव्य, गुण, सामान्य या अन्य किसी रूप में ग्रहण करने में एकत्ववादी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
(२) अर्थक्रियाकारित्व को सत्ता का गमक मानकर बौद्धों ने व्यष्टिवाद के प्रस्थापन का जो प्रयास किया है, उसका भी तात्पर्य यही है कि हरेक वस्तु का जो स्वीय 'कुर्वद्रूप' हुआ करता है उसी पर से उसका व्यक्तित्व निर्धारित मानना चाहिए। दो व्यक्तियों का एक ही कुर्वद्रूप नहीं हो सकता और कार्यशक्ति, कारणतावच्छेदक सामान्य आदि अकुर्वद्रूपों की अपेक्षया कार्यकारी कुर्वद्रूप को ही वस्तु का वास्तविक रूप समझना तर्कसंगत होता है। यह कुर्वद्रूप अन्ततोगत्वा वस्तु की पृथक्तया प्रतीति ही हो सकती है। अतः अर्थक्रियाकारित्वं सत्त्वं यह सिद्धान्त हमें सीधे लाइग्नित्ज़ के आइण्डेन्टीटि आफ इण्डिसीवुल्स सिद्धान्त पर पहुँचाता है।
(३) जब बौद्धों ने वस्तुमीमांसीय विश्लेषण के आधार पर स्वलक्षण वस्तुतत्त्व का निष्कर्षण किया तब वीड रसेल ने तार्किक विश्लेषण के द्वारा अपने तार्किक अणुरूप वस्तु की यथार्थता प्रस्थापित की। आनुभविक तथ्य में से जो जो अंश तर्कतः अपवार्य है उसके प्रतिषेध के बाद अन्ततः जो अंश शेष रह जाता है वही 'तार्किक अणु' है और वही परमार्थ सत् है। यह दैशिक, कालिक, धर्मात्मक, गुणात्मक या अन्य विध अणु है इस सम्बन्ध में रसेल पर्याप्त स्पष्टीकरण नहीं दे पाये हैं। किन्तु बौद्धों ने स्वलक्षण को देश, काल, धर्म, सम्बन्ध आदि सभी की अपेक्षा से स्पष्टतया स्वलक्षण ठहराया है।
(५) आनुभविक विश्व के मूल तत्त्वों को केवल ताकिक विश्लेषण के द्वारा खोज निकालना और इन तत्त्वों पर से आनुभविक विश्व की तथाकथित तार्किक संरचना करने का प्रयास रसेल के अणुवाद का एक गम्भीर दोष है। जैसा बौद्ध कहते हैं अणुओं पर दृश्यविश्व की संरचना वासनावश व्यक्ति किया करता है। यह उसकी अविचारित रमणीय ऐसी रचना है जिसमें उसकी तर्कनाशक्ति बिलकुल काम नहीं आती।
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