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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं होता है। यही समाज में गृहस्थों के कलह का मुख्य कारण बन जाता है । जिससे परिवार में अशान्ति छा जाती है। उसको अपनाने वाले पुरुष और स्त्री दोनों का समाज में अपमान होता है। यही कारण है कि बुद्ध ने दस अकुशल कर्मों से बचने के लिए इन पञ्च विनयों पर अधिक जोर दिया है। यदि व्यक्ति इनका समुचित पालन करें तो समाज में अपराधियों की संख्या घट सकती है। जिससे न्यायालय तथा पुलिस आदि की अपराधियों को दण्ड देने वाली सभी संस्थाएँ स्वतः बन्द हो जाएँगी। इतना ही नहीं विश्व में युद्ध के लिये जितनी तैयारियाँ होती हैं, वे सब बन्द हो जाएँगी। युद्ध के निमित्त जितना धन व्यय किया जाता है, उसका शिक्षा एवं समाज के दलित लोगों पर व्यय हो सकेगा।
भिक्षुओं के लिए ब्रह्मचर्य के आचरण का नियम बनाया गया है तथा गृहस्थी के लिये व्यभिचार न करने का नियम है। व्यभिचार न करने वाले व्यक्ति को इस समाज में यश मिलता है तथा परलोक में सुगति उपलब्ध होती है। आचार्य चन्द्रकीर्ति ने मध्यमकावतार ग्रन्थ में कहा है कि सुगति का कारण शील ही है। इस प्रकार अन्य चारों शीलों से भी समाज का हित तथा अनाचरण से अहित दोनों उपर्युक्त की तरह होते हैं। उपर्युक्त पाँच विनयों का पालन करने से व्यक्ति और समाज दोनों का सम्बन्ध निश्चित रूप से अच्छा होता है। नैतिक कर्तव्य का उचित ढंग से आचरण न करने पर समाज में अपमानित होना पड़ता है।
__ महायानी साधक समाज से घनिष्ट सम्बन्ध रखते हैं, क्योंकि वे परार्थ के लिए अपने जीवन को समर्पित कर देते हैं। प्राणीमात्र का कल्याण करना ही महायानी साधकों का अन्तिम लक्ष्य है। बुद्ध ने भी समाज में रहने वाले दुःखी प्राणियों के लिए बोधिचित्त उत्पन्न किया है। महायानी शास्त्रों में कहा भी गया है कि समस्त बद्धों के गुरु नरक के सत्त्व हैं। इसलिए आचार्य चन्द्रकीति ने मध्यमकावतार के मंगलाचरण में करुणा को प्रणाम किया है। क्योंकि करुणा से बोधिचित्त उत्पन्न होता है, बोधिचित्त से बोधिसत्त्व तथा बोधिसत्त्व से बुद्ध । अतः बुद्ध एवं बोधिसत्त्वों का मूल कारण करुणा ही है। करुणा भी कृत्रिम नहीं होनी चाहिए। जब तक यथार्थ महाकरुणा पैदा नहीं होगी, तब तक महायानी यह संज्ञा नहीं दी जा सकती। जिस समय महाकरुणा पैदा होगी उसी समय से व्यक्ति महायानी कहलाएगा। कुछ साधक समाज में साक्षात् रहकर सामाजिक प्राणियों की इच्छा के अनुसार सेवा करते हैं। इसके लिए वे केवल भिक्षुवेश में ही हों, ऐसी बात नहीं है। गृहस्थ जीवन में रहकर भी समाज का कल्याण किया जा सकता है।
परिसंवाद-२
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