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बुद्ध का स्वनियन्त्रित अध्यात्मवाद : समष्टि व्यष्टि के सन्दर्भ में
श्री राधेश्यामधर द्विवेदी समाज सम्बन्धों का जाल है। बुद्ध का समाज सम्बन्ध राहित्य पर बनता है। सम्बन्ध अहङ्कार, ममकार, प्रेम, सहानुभूति आदि से बनते हैं । बुद्धत्व इन जागतिक सम्बन्धों के विच्छेद से प्राप्त होता है। संसार व्यक्ति की आत्म स्थिति से पनपता है, बुद्धत्व व्यक्ति की अनात्म स्थिति से पनपता है। आत्मसत्ता से राग तथा प्रेम दोनों विकसित होते हैं। अनात्मसत्ता से अराग, अलोभ और अद्वेष विकसित होते हैं। राग संसार को सङ्कीर्ण बिन्दुओं में बाधता है, प्रेम सङ्कीर्ण बिन्दुओं को सबके प्रति सहानुभूति का पाठ पढ़ाता है। मानव को मानव के प्रति सहानुभूतिशील बनाता है । व्यक्ति से परिवार की ओर उन्मुख करता है। व्यक्ति दायित्व के साथ परिवार के दायित्व की ओर बढ़ाता है। परिवार दायित्व से ग्राम, जनपद, प्रान्त, देश एवं सकल मानव-समाज के प्रति दायित्व से अपनत्वभाव को विकसित करता है। वह घर में रहता है, समाज में रहता है तथा लोक के सुखों एवं दुःखों को झेलता है, उसके झेलने में जो विकृतियाँ पैदा होती है, उनको दूर करने के लिए प्रयत्न करता है। बच्चे के लिए अपने राग का प्रहाण करता है, अपनी अभिलाषाओं को कम करता है, उसकी देखा-देखी माँ भी त्याग का भाव पनपाती है और प्रेमपूर्वक दुःख को अपने भावी सन्तान के सुखमय जीवन के लिए सहन करती है, यहाँ से समाज का बिन्दु प्रारम्भ होता है। यह बिन्दु गैर जिम्मेदाराना प्रारम्भ नहीं जीवन की असलियत है । यहाँ से दायित्वपूर्ण जीवन जब प्रारम्भ होता है तो वह सम्पूर्ण संसार में दायित्वपूर्ण कर्तव्य करने का भार अपने ऊपर ले लेता है। परिवार बिन्दु में सिमटा व्यक्ति जब सम्पूर्ण संसार को पारिवारिक मानकर चलता है तब वह बोधिसत्त्व बनता है। तब वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। और तब गान्धी पैदा होता है जो किसी भी बात को कहने के पहले अपने में उसकी परख करता है। यह दायित्वपूर्ण विचार आत्मवाद का प्रस्थान बिन्दु है।
अनात्मवाद आत्मक्लेश के समापन से प्रारम्भ होता है । वह संसार में कष्टभार से इतना दुःखी रहता है कि दूसरे के दुःख से भी आतङ्कित हो उठता है, फलतः वह
परिसंवाद-२
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