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बौद्ध व्यष्टिवाद की आंशिक समष्टिवादी परिणति की सम्भावनाएँ
डॉ० हर्षनारायण
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धर्म के अनेक आयाम, अनेक पक्ष सम्भव हैं । धर्म व्यष्टिपरक हो सकता है, समष्टिपरक हो सकता है; परलोकसाधक हो सकता है, लोकसाधक हो सकता है । यदि उसका अर्थ और व्यापक करें तो उसके अन्तर्गत हर प्रकार का कर्तव्याकर्तव्यविवेक आ जाता है । व्यासभाष्य की घोषणा है कि धर्म किसी भी वस्तु के स्वरूप का धारक है, महाभारत की घोषणा है कि धर्म समाज का धारक है, अथर्ववेद की घोषणा है कि धर्म पृथ्वी का धारक है, तैत्तिरीयारण्यक की घोषणा है कि धर्म सम्पूर्ण जगत् का धारक है । किन्तु बुद्ध का धर्म शतप्रतिशत निर्वाण-धर्म है, जिसे लोक की विवृद्धि से कोई प्रयोजन नहीं - 'न सिया लोकवड्डूनो', 'न पुत्तमिच्छे, न धनं न रहूं' ।
वस्तुतः, बुद्ध लोक के सम्बर्द्धन के प्रति कहीं भी प्रतिश्रुत, प्रतिबद्ध नहीं दिखायी देते । इनकी दृष्टि में तो लोक धाँय धाँय जल रहा है, जिसमें फंसना नहीं बल्कि वचना ही श्रेयष्कर है। मुहम्मद के आरम्भिक उपदेशों में इनकी हश्र - चेतना कैसी तीक्ष्ण है ? बुद्ध की दाह-चेतना तीक्ष्णतर प्रतीत होती है वस्तुतः इतनी तीक्ष्ण
कि उसकी चिन्ता में उन्हें तत्त्वज्ञान, तत्त्वमीमांसा, की बातें बिलकुल नहीं सुहातीं । निश्चय ही बुद्ध लोक में प्रवृत्ति नहीं, लोक से निवृत्ति और निर्वृति (निर्वाण ) का सन्देश लाये थे, समष्टि की समस्याएँ सुलझाने नहीं आये थे । अतः उनसे किसी समाज-दर्शन की आशा व्यर्थ है । वे प्रचलित समाजव्यवस्था की अतियों पर यदा कदा, अनुषङ्गतः कटाक्ष अथवा आक्षेप करके रह जाते थे । समाज व्यवस्थापन उनका कार्यक्षेत्र ही नहीं था । वे अन्य अनेक शास्ताओं, पैगम्बरों के समान कोई लौकिक कर्तव्याक व्यिशास्त्र, कोई शरीअत लेकर नहीं आये थे । उन्होंने शास्त्र दिया, किन्तु श्रमणों को, अथवा श्रामण्य-प्रयोजक । यह दूसरी बात है कि उसका विनियोग समष्टि के हित में भी किया जा सकता है, जिस पर हम आगे चलकर विचार करेंगे ।
बुद्ध की समष्टि - निरपेक्षता उनका दोष नहीं मानी जा सकती । जो उनका क्षेत्र ही नहीं है उसमें उनके अप्रवेश पर चिन्ता व्यक्त करने का कोई कारण नहीं । बुद्ध उत्कट तात्त्विक दुःख-चेतना से त्रस्त मानव के मसीहा बनकर आये थे, उसके त्राणार्थ निर्वाण का सन्देश लेकर ।
परिसंवाद - २
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