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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ व्यक्ति के समान ही व्यक्तियों का समुदाय जो समाज है उसके विषय में भी कहा जा सकता है। किन्तु जैसा अभी ऊपर सङ्केत किया गया है बुद्ध ने तृष्णा की निवृत्ति के लिए ही आत्मा की शाश्वत सत्ता का निषेध किया था । व्यक्ति और समाज तथा इनके सम्बन्धों का उन्होंने कहीं प्रतिवाद नहीं किया। बुद्ध का समस्त जीवन जनहित में लगा रहा। बुद्ध की करुणा अनुपम है। संसार के दुःखों की पङ्क में फँसे हुए प्राणियों के उद्धार के लिए ही उन्होंने देशना की थी। वाचस्पतिमिश्र जैसे बौद्ध मत के आलोचक भी इसे स्वीकार करते हैं। न्यायकणिका (मेडीकल हाल, काशी, पृ० ११०-१११) परवर्ती बौद्ध दर्शन में तो यहाँ तक स्वीकारा गया है कि नैरात्म्य साक्षात्कार करने के अनन्तर ही सर्वज्ञ जनहित का उपदेश करता है (द्र० न्यायकणिका पृ० ११२-११३)।
भगवान् बुद्ध ने स्थान-स्थान पर व्यक्ति और समाज के कल्याण के लिए उपदेश दिया है। उनके अष्टाङ्गिक मार्ग में कुछ व्यक्ति के लिये भी है और कुछ समाज के लिये भी। जहाँ सम्यक् दृष्टि और सम्यक् संकल्प को, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि को व्यक्ति का हितकारी धर्म कहा जा सकता है, वहीं सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् जीविका और सम्यक् प्रयत्न-ये सभी समाज हितकारी कर्म ही हैं। सम्यक जीविका और सम्यक् धर्म की यह भावना व्यक्ति को समाज में उचित कर्म करने की प्रेरणा देती है।
___ भगवान बुद्ध ने तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक बुराइयों, रूढ़ियों, अन्धपरम्पराओं का अपने मधुर उपदेशों से निराकरण किया। वह सब समाज-कल्याण की भावना ही है। उन्होंने समाज में जन्म से किसी को ब्राह्मण या अन्य नहीं माना। उन्होंने स्पष्ट कहा-न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसम्भवं, अकिञ्चनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।
(धम्मपद, ब्राह्मणवग्गो, १४) संस्कृत पुस्तकालय, चौ० वा० न० ९७, कचौड़ी गली, वाराणसी, १९७१ ।
पालि साहित्य से विदित होता है कि पदे-पदे सामाजिक कार्यों में होने वाले सन्देहों को उन्होंने दूर किया और समाजकल्याण के लिये आवश्यक उपदेश दिया । उनके उपदेश अमर हैं। वे सदा व्यक्ति और समाज के मङ्गल के लिए समर्थ हैं। परिसंवाद-२
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