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बौद्धदर्शन की दृष्टि से व्यष्टि और समष्टि
(चौखम्बा, १९८२ वि०, पृ० २२६) उसी प्रकार ज्ञान, इच्छा, द्वेष आदि कार्य करने के कारण रूपादि का समुदाय सत्त्व, आत्मा या व्यक्ति कहलाता है। रूपादि से अतिरिक्त सत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं है। बुद्ध ने तृष्णा को दूर करने के लिए एक शाश्वत आत्मा का विरोध किया था । धर्मकोति ने प्रमाणवात्तिक में बतलाया है
सुखी भवेयं दुःखी वा मा भूवमिति तृष्यतः ।
यैवाहमिति धीः सैव सहजं तत्त्वदर्शनम् ॥ (प्रमाणवात्तिक १।२०२) इसे स्पष्ट करते हुए वाचस्पतिमिश्र कहते हैं—यद्यपि स्कन्ध क्षणिक हैं तथापि अनादि अविद्या की वासना से प्राणी 'यह एक अहङ्कार का आश्रय सत्त्व है इस भ्रान्ति से सुखी होऊँ, दुःखी नहीं, इस प्रकार की तृष्णा करता हुआ प्रवृत्त होता है। "यद्यपि विशरारवः स्कन्धास्तथाप्यनाद्यविद्यावासनावशोऽयमेकमहंकारास्पदं सत्त्वमित्यभिमन्यमानः सुखी भवेयं दुःखी माभूवमिति तृष्णक प्रवर्तत इत्यर्थः" (न्याय वात्तिकतात्पर्य टीका, पृ० ५०७)। इस प्रकार के विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बौद्धों के इस अनात्मवाद में शाश्वत आत्मा तो नहीं है फिर भी अहं इस प्रतीति का विषय विकल्प से जानने योग्य व्यक्ति अवश्य है। आधुनिक युग के बौद्धदर्शन के विद्वान् श्चैरवात्स्की ने बौद्धों के अभिप्राय को इस प्रकार स्पष्ट किया है
This stream of elements kept together and not limited to present life but having its roots in post existences and its continuation in future ones, is the Buddhist counterpart of the soul or the self of other systems. (Central Conception of Buddhism, London 1923P. 22, L. 141)
बौद्ध न्याय में जो विश्व के तत्त्वों को स्व-लक्षण और सामान्य लक्षण के रूप में देखा गया है उसमें कभी-कभी स्वलक्षण को व्यक्ति का समानार्थक सा समझ लिया जाता है और यह भी मान लिया जाता है कि व्यक्ति परमार्थसत् है । तथ्य यह है कि वौद्ध न्याय में “अर्थक्रियासामर्थ्य" ही वस्तु का लक्षण है- "अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद् वस्तुनः । (धर्मकीर्ति, न्यायविन्दु, १. १५)। अतः रूपादि स्कन्धों के समुदाय में जो जलाहरण आदि का सामर्थ्य है, वही वस्तुसत् है। रूपादि का समुदाय वस्तु सत् नहीं। न ही समुदाय पर आश्रित कोई समुदायी या अवयवी वस्तुसत् है । इस प्रकार व्यक्ति या सत्त्व एक व्यावहारिक पदार्थ है, परमार्थ सत् नहीं, इसका ज्ञान विकल्प . से होता है।
परिसंवाद-२
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