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दर्शन की दृष्टि से व्यक्ति, समाज और उनका सम्बन्ध
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ममत्व भी समाप्त होगा और तज्जनित छोटे-छोटे स्वार्थ के दायरे भी । अतः नागार्जुन की तरफ से कहा जा सकता है कि समाजदर्शन का आधार यथाभूत परिज्ञान ही होना चाहिए । विग्रह व्यावर्तनी में आचार्य कहते भी हैं - प्रभवति च शून्येतेयं प्रभवन्ति तस्य सर्वार्थाः ॥
जो लोग बौद्धमत पर निषेधात्मक और भिक्षुप्रधान मत होने का दोष लगाते हैं उन्हें रत्नावली को माध्यम बनाकर समाधान मिल सकता है । महायान का निर्वाण अपने उत्कृष्ट रूप में ऐहिकता को ही महत्त्वप्रदान करने वाला है । नागार्जुन को जगत, मानवसमाज और उसके अभ्युदय की अवहेलना अभीष्ट नहीं है ।
यह भी आक्षेप किया जाता है कि बौद्धदेशना में 'काम और अर्थ' इन दो पुरुषार्थों को 'मूल्य' नहीं दिया जाता, जब कि ये दोनों समष्टि के अनिवार्य अंग हैं । किन्तु रत्नावली में हम इस आक्षेप का भी परिहार पाते हैं । बौद्धदेशना में यह माना गया है कि मानव संतति अनन्तकाल तक चलती रहेगी और इसीलिए बोधिसत्त्व अनन्तकाल तक लोककल्याण में प्रयत्नरत रहने की प्रतिज्ञा करता है । जिस अभ्युदय धर्म की वात आचार्य नागार्जुन ने कही है । वह काम और अर्थ दोनों को अपने में अन्तर्भाव किये हुए हैं । उसके लिए मर्यादायें अवश्य बाँधी गयी हैं, किन्तु मर्यादा बद्ध होने से वे 'मूल्य' की कोटि में नहीं रह गये, ऐसा नहीं कहा जा सकता । हाँ, उन्हें चरम पुरुषार्थ नहीं माना गया है, (परममूल्य नहीं माना गया है) और सम्भवतः साम्यवादियों तथा विशुद्ध भौतिकवादियों के अतिरिक्त कोई भी मत 'अर्थ एवं काम' को परमपुरुषार्थ नहीं मानता । दान आदि की नैतिक मूल्य के रूप में मान्यता, यह स्पष्ट कर देती है कि अर्थ का मूल्य समाज में है । किन्तु इसके उपार्जन के लिए उचित साधन को ही वांछनीय माना गया ।
इस प्रकार हमारे लिए माध्यमिक दर्शन में वे सूत्र हैं जो हमारी आज की समस्याओं (व्यक्ति, समाज और उनके सम्बन्ध को लेकर जो संकट की समस्या है ) को सुलझाने में आलोक प्रदान कर सकते हैं ।
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परिसंवाद - २
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