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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ
समाज को ही लिया जाय तो व्यक्तियों के बीच वह कल्पित सम्बन्ध होगा " प्रयोजन साम्य" और व्यक्ति और समाज के बीच वह होगा कल्पित अंशाशिभाव ।
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यह सही है कि बौद्ध सिद्धान्त में वास्तविक अंशाशिभाव मान्य नहीं है किन्तु उक्त युक्ति के अनुसार कल्पित तो वह माना ही जा सकता है ?
न्याय वैशेषिक दार्शनिक भी तो " न्याय" एवं प्रतिज्ञा हेतु आदि के बीच कल्पित ही अंश शिभाव मानते हैं ? क्योंकि शब्द की निरवयवता के कारण वास्तविक अंशशिभाव न्याय और प्रतिज्ञा आदि के बीच सम्भव नहीं । तदनुसार बौद्ध सिद्धान्त में भी व्यष्टि और समष्टि के बीच अर्थात् व्यक्ति और समाज के बीच सापेक्ष सत्यताशील कल्पित अंशाशिभाव सम्बन्ध हो सकता है ।
इसके बाद सामाजिक विकास की बात आती है पर यह विकास तभी सम्भव है जब कि व्यक्तियों के माध्यम से समाज में (१) अहिंसा, (२) सत्य और (३) अस्तेय इन तीन गुणों का विकास हो । अतः तदर्थ चेष्टा होनी चाहिए ।
परिसंवाद
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