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मूर्त अंकनों में जिनेतर शलाकापुरुषों के जीवनदृश्य
और सिंहासन को भी सम्मिलित किया गया है तथा ध्वजदण्ड के स्थान पर नागेन्द्र- भवन IT उल्लेख है ।
प्रत्येक चक्रवर्ती के जन्म के पूर्व उनकी माता ने भी इन्हीं १४ शुभ स्वप्नों के दर्शन किये थे । ६ श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उन्हें चक्रवर्ती पद के सूचक १४ रत्नों का स्वामी बताया गया है । ये १४ रत्न क्रमशः चक्र, दण्ड, खड्ग, छत्र, चर्म, मणि, काकिणी (कौड़ी), अश्व, गज, सेनापति, गृहपति, शिल्पी, पुजारी एवं स्त्री हैं। इसके अतिरिक्त चक्रवर्ती नौ निधियों - क्रमशः नैसर्प, पाण्डुक, पिंगल, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणव एवं शंख के धारक भी हैं I
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शलाकापुरुषों की सूची में सम्मिलित सभी बलदेव एवं वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष थे । तीर्थंकरादि शलाकापुरुषों के मध्यवर्ती होने एवं तीर्थंकरों की अपेक्षा कम शक्तिशाली होने के कारण इन्हें मध्यम पुरुष माना गया है । ये दोनों मानसिक बल से सम्पन्न होने के कारण ओजस्वी, देदीप्यमान शरीर के धारक होने के कारण तेजस्वी बताये गये हैं। सभी बलदेव तालवृक्ष चिह्न तथा वासुदेव गरुडांकित ध्वजा के धारक थे। यह बलदेव और वासुदेव की परिकल्पना की आधारभूत पृष्ठभूमि को वैष्णव धर्म से सम्बद्ध होने की ओर इंगित करता है; क्योंकि ताल और गरुड क्रमश: बलदेव (बलराम) एवं वासुदेव कृष्ण के मुख्य लक्षण रहे हैं। नौ प्रतिवासुदेव अथवा प्रतिशत्रु कीर्तिपुरुष वासुदेवों के शत्रु थे । ये सभी चक्रधारी थे तथा युद्ध में वासुदेव द्वारा - स्वयं के चक्र से ही मारे गये ।
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श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय इस बात का स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक वासुदेव के एक श्वेत वर्णवाले सौतेले भाई थे, जो बलदेव के नाम से अभिहित थे। ये सदैव ही वासुदेव के पराक्रम से जुड़े थे तथा वासुदेवों से उत्तम थे । आरम्भिक ८ बलदेव मोक्षपद को तथा ९ वें बलदेव (राम) स्वर्गलोक को प्राप्त हुए । ११
तालवृक्ष - अंकित ध्वजा के धारक सभी बलदेव नीलवस्त्रधारी थे । श्वेताम्बर परम्परा में उनके आयुधों के रूप में धनुष, बाण, हल एवं मूसल का उल्लेख है । हेमचन्द्र ने सभी बलदेवों को संवर्तक नामक हल, सौमन्द नामक मूसल एवं चन्द्रिका नामक गदा का स्वामी बताया है। I दिगम्बर-ग्रन्थ में गदा, हल, मूसल के साथ-साथ रत्नमाला का भी उल्लेख है ।
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पृथ्वी के तीन भागों पर विजय प्राप्त करने एवं चक्रवर्तियों के आधे अधिकारों का भोग करने के कारण वासुदेवों को अर्धचक्रवर्ती भी कहा गया है। १५ कृष्णवर्णवाले वासुदेवों को पीतवस्त्रधारी बताया गया है । १६
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