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जैन पुरातत्त्व - सन्दर्भित विदेह और मिथिला
मल्लिचैत्य और नेमिजैन- चैत्य बने थे । कालान्तर में इन चैत्यों में यक्ष-यक्षिणी के पूजा - प्रचलन की जानकारी जिनप्रभसूरि ने 'विविधतीर्थकल्प' में दी है। यक्ष को धन का देवता तथा यक्षी को उपज की देवी माना गया है । यक्ष और यक्षी की प्राचीन मूर्तियाँ वैशाली के चेचरग्राम - संकुल से प्राप्त हुई है । बुद्ध और महावीर के समय बज्जी- विदेह जनपद में यक्ष-यक्षी की पूजा काफी लोकप्रिय थी (चेचर की प्राचीन मृण्मूर्त्तियाँ) और वैशाली में अनेक इतिहास - प्रसिद्ध चैत्य थे 1
मिथिलापुरी के अकम्पित ने तीन सौ शिष्यों के साथ मध्यम पावा में तीर्थंकर महावीर से सद्धर्म की दीक्षा ली थी। अकम्पित को जैन सम्प्रदाय के आठवें गणधर की प्रतिष्ठा प्राप्त थी। मिथिलापुरी के लक्ष्मीधर चैत्य में निवासित विद्वान् आशमित्र ने तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के लगभग दो सौ वर्ष बाद जैन धर्म का प्रबल विरोध किया था ।
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जैन तीर्थंकरों में अन्तिम वर्धमान महावीर के भौतिक शरीर में विदेहरक्त प्रवाहित था । जैन वाङ्मय में इन्हें 'वेसालीए' तथा 'विदेहसुकुमार' कहा गया है । वर्धमान महावीर की एक पालयुगीन प्रस्तर मूर्ति वैशाली के जैन मन्दिर में संपूजित है । पालयुगीन अलंकरणों से अलंकृत इस प्रतिमा के बाद पीठ में धर्म के प्रतीक दो सिंहों के बीच धर्मचक्र, पार्श्वों में पार्श्वदेवियाँ (चँवरधारिणी) अलंकृत प्रभावली के दोनों ओर विद्याधर तथा सिर पर त्रिच्छत्र धारण किये हुए महावीर पद्मासन पर योगासीन हैं । इस प्रकार की योगासीन मूर्त्तियों की रचना का मूल सिन्धुघाटी सभ्यता के पशुपति में निहित है ।
डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव ने जैन ग्रन्थों के आधार पर 'महावीरकालीन वैशाली' (वैशालीमहोत्सव - स्मारिका, १९८९ ई.) का भव्य रूपांकन किया है। इसमें महावीरकालीन वैशाली की धार्मिक, प्राकृतिक तथा जानपद जीवन की स्थिति का सुरम्य चित्र प्रतिबिम्बित हुआ है । वैशाली तत्कालीन भारत की समृद्धतम महानगरियों में अद्वितीय थी (वड्ढमाणचरिउ: विबुधश्रीधर, १२वीं सदी)। कुण्डपुर की अट्टालिकाओं पर फहरानेवाली ध्वजाएँ तीखे तेजवाले सूर्य को भी ढक लेती थीं । यहाँ के जिनालयों में बराबर जय-जयकार गूँजता रहता था और स्तोत्र, गीत, नृत्य, वाद्य आदि की मनोमोहक स्वरमाधुरी अनुध्वनित रहती थी। जिनालयों की जिन-प्रतिमाएँ दिव्य सुवर्ण उपकरणों तथा अलंकरणों से दीप्त रहती थीं (वीरवर्द्धमान चरित : आ. भट्टारक सकलकीर्त्ति, १५वीं सदी) ।
जैन वाङ्मय के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि जैन सम्प्रदाय का पंचम गणधर सुधर्मास्वामी का जन्म कोल्लाग - सन्निवेश (कोल्हुआग्राम) में हुआ था । वैशाली के गणपति चेटक, सेनापति सिंह, सुदर्शन श्रेष्ठी, पूर्णभद्र, सुजात जैसे जिनानुयायी वैशाली के ही थे । चम्पा की जैन साध्वी चन्दनबाला ने एक विशाल भिक्षुणी - संघ के साथ
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