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जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता
की तीन प्रमुख शर्ते हैं। एक तो यह कि उस व्यक्ति को ज्ञान हो—उस क्षेत्र का विशद ज्ञान हो, जिसमें हमें परामर्श की आवश्यकता है। कोरा ज्ञान मात्र सैद्धान्तिक भी हो सकता है, अतः यह भी आवश्यक है कि उस व्यक्ति को पर्याप्त अनुभव हो । ज्ञान एवं अनुभव के बाद भी परामर्श निर्रथक हो जा सकता है, यदि उस व्यक्ति में एक तीसरा गुण न हो । उसमें यह भी शक्ति होनी चाहिए कि वह अपने ज्ञान और अनुभव को हमारे स्तर पर ला उसे हमारे लिए बोधगम्य बना सके, अन्यथा हमें उन बातों की पकड़ ही नहीं हो पायेगी। यदि ऐसा आप्त पुरुष मिल जाय तो उसकी बातों पर प्रारम्भिक आस्था उत्पन्न हो सकती है। ऐसा हम जीवन में प्रायः प्रतिदिन देखते हैं। हमारी सम्पूर्ण प्रणाली इसी प्रकार के परामर्श के बल पर ही चल रही है । हमारी सभी व्यवस्थाएँ– राजनैतिक,
आर्थिक, शैक्षणिक, अपराध-सम्बन्धी, युद्ध-सम्बन्धी आदि-इसी ढंग से चल रही हैं, जिन्हें आज की भाषा में 'विशेषज्ञ' कहा जाता है, और उनकी बातों में विश्वास कर, हम उसी के अनुरूप कार्य करते हैं। तब यह है कि इसके दोनों छोर पर विसंगति की सम्भावना है। यदि हमने आप्तता की पहचान उचित रूप से नहीं की, अथवा 'आप्तता' की पहचान के बाद भी हम संशयात्मक ही रहे, तो दोनों अवस्थाओं में विसंगतियाँ ही उत्पन्न होंगी।
इन विसंगतियों की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों तथा जैन मनीषियों के प्रति सद्-आस्था की बात की गयी है। तीर्थंकरों को ज्ञान भी है और अनुभव भी है, उन्होंने उन्हीं सत्यों को दिया है, जिन्हें उन्होंने स्वयं झेला है, देखा है, पाया है। जैन मनीषियों ने सदियों से उन सत्यों को हमारे लिए बोधगम्य बनाने का प्रयल किया है। इसीलिए उनमें आस्था की बात की गई है। यह अन्धविश्वास नहीं, यह उसी विश्वास का सघन तथा अधिक प्रामाणिक रूप है जैसा विश्वास हम अब भी अपने 'विशेषज्ञों' में करते हैं । यह अधिक प्रामाणिक इस अर्थ में भी है कि यह मात्र 'व्यक्ति' पर विश्वास नहीं, एक आदर्श पर विश्वास है । फलत: सामान्य विश्वासों के समान यह भी कार्य करने को तत्पर करा देता है, और साथ-साथ एक शुद्ध संकल्प का जनक भी बन जाता है। इसी कारण यह मात्र विश्वास नहीं--आस्था है।
आस्था में शक्ति है, वह हमारे जीवन को सूक्ष्म एवं व्यापक रूप में प्रभावित कर सकती है। यह मन को शुद्ध करने तथा उसे सन्मार्ग पर लगाने का एक अनिवार्य उपकरण है। और आस्था जागती है द्रष्टाओं, आप्त मनीषियों के विचारों से परिचय बढ़ाने की चेष्टा में, उन्हें देखने के प्रयत्न में । उनके सम्पर्क से ही आस्था जागती है।
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