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________________ 240 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 द्वारा सुखात्मक जीवन का विधान है, फिर भी महावीरस्वामी ने 'सत्यम्' पर विशेष बल दिया है। अद्वैत वेदान्ती शंकराचार्य ने इसी 'सत्यम्' में तीन अक्षरों का विधान किया है— सत् + ति + यम् = सत्यम् । 'सत्' अमृत है, 'ति' मर्त्य है और 'यम्' दोनों का सम्बन्ध है। अमृत और मृत के सम्बन्ध से ही दुनिया चलती है। फिर भी अद्वैत वेदान्त में सत्य को ब्रह्म कहा गया है— सत्यं ब्रह्म । यहाँतक कि आगे बढ़कर कहा गया है— सत्यं ह्येव ब्रह्म (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५. ४. १), अर्थात् सत्य ही ब्रह्म है । महावीरस्वामी की पंचसूत्री में तीसरा सूत्र 'सत्य' से सम्बन्ध रखता 1 यदि वेदान्त की दृष्टि से देखा जाय, तो व्यावहारिक सत्य में सत्य - भाषण का अत्यधिक महत्त्व है । पारमार्थिक सत्य में आत्मा या ब्रह्म आ जाता है, जिसका बोध होने पर व्यक्ति का अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है । वह सर्वविद्, सर्वज्ञ हो जाता है । महावीरस्वामी के लिए ऐसे विशेषण दिये गये हैं; क्योंकि वे महान् ज्ञानी थे । इसका महत्त्व उनके अनेकान्तवाद को जाता है, जो महत्त्वपूर्ण तत्त्वज्ञान विषयक सिद्धान्त है । इसी के विषय में वेदान्त में प्रश्न किया गया है— 'केन विज्ञातेन इदं सर्वं विज्ञातं भवति !' फिर उत्तर भी दिया गया है— 'येन विज्ञातेन इदं सर्वं विज्ञातं भवति तद् ब्रह्म स आत्मा ।' आत्मबोध के बाद व्यक्ति सारे कषायों और मलों से ऊपर उठ जाता है, वह मुक्त हो जाता है । आत्मस्वरूप में विचरण करने लगता है । उसकी गति अप्रतिहत हो जाती है । 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म' तथा 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' ( तैत्तिरीय उपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली, प्रथम अनुवाक) की घोषणा अद्वैत वेदान्त भी करता है । इस प्रकार, वर्धमान महावीरस्वामी की पंचसूत्री में उनके द्वारा कथित अहिंसा, सत्य, अयाचकत्व, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह —- ये ऐसे महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं, जो शाश्वत हैं और ब्राह्मण, बौद्ध, इसाई, इस्लाम, सिख आदि विभिन्न तथाकथित धर्मों या सम्प्रदायों से अनुमोदित हैं। चाहे वर्धमान महावीर का पंचसूत्री हो या बृहदारण्यकोपनिषद् का एकसूत्री 'द', मता की दृष्टि से ये प्राणी मात्र के कल्याण का उद्घोष करते प्रतीत होते हैं । उनके उपदेश देश-काल की सीमा से परे सार्वदेशिक- सार्वकालिक सत्य हैं। आज की परिस्थिति में उनके उपदेशों को ग्रहण करने, अमल करने की और भी अधिक आवश्यकता है । वर्तमान सन्दर्भ में उनके उपदेशों से हमारा जीवन आदर्श, संयमपूर्ण, सुखात्मक, अतएव समाज एवं संसार के लिए अनुकरणीय बन सकता है। साथ ही, अनेकान्तवाद या परमतत्त्व के दर्शन से हम सत्य, ज्ञान और चैतन्यानन्द के अनन्त लोक में भी विहार कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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