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महावीर का पंचसूत्री महाव्रत और बृहदारण्यक के तीन 'द'
डॉ. अवधेश उपाध्याय*
कर्मणो हापि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । अकर्मणच बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥
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(श्रीमद्भगवद्गीता, ४.१६)
चेच्च वित्तं च पुत्ते य णायओ य परिग्गहं । चेच्चाण अंतगं सोयं निरवेक्खो परिव्वए ।
(सूत्रकृतांग, १.९.७)
विश्व के सभी धर्म मानव मात्र के कल्याण की आधारशिला पर ही निर्मित होते हैं। सभी धर्मों का मूलतत्त्व एक ही है । कथन-शैली, माध्यम और साधन में विभिन्नताओं के होते हुए भी वास्तव में सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है—चिन्मय शान्ति, परम आनन्दस्वरूप परम तत्त्व की प्राप्ति तथा व्यवहार में सर्वसुखशान्ति ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, ४.२१)
पारमार्थिक दृष्टि से परम तत्त्व अद्वितीय सत्, चित् आनन्दस्वरूप है । लेकिन अज्ञानवश व्यावहारिक दृष्टि से उसमें नानात्व की कल्पना कर ली गई है। जब व्यवहार में अतिक्रमण या व्यभिचार होता है, तब अवतारवादियों के यहाँ सत्य, धर्म, ज्ञान, उपदेश की स्थापना के लिए अवतार या पैगम्बर का आगमन होता है ।
वैदिक कर्मकाण्ड में इहलोक और इससे बढ़कर परलोक में सुख-प्राप्ति के लिए विभिन्न कर्मकाण्डों का विधान है। जैमिनि ने अपनी 'पूर्वमीमांसा' में इसी विचार का दृढ़ रूप से प्रतिपादन किया है और धार्मिक यज्ञीय कर्मकाण्डों पर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है | बाइबिल, अर्थात् 'Old Testament' में भी सदाचार और तत्त्वज्ञान के बहुत
'जैनशास्त्र और अहिंसा शोध-संस्थान, वैशाली (बिहार) ।
प्राकृत
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