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जैन एवं हिन्दू धर्म में परमतत्त्व की अवधारणा
मनुष्य की इसी श्रेष्ठता के कारण जैनधर्म में दैवीय शक्तिवाले ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं रहा । जैन दृष्टि में ऐसा कोई व्यक्ति ईश्वर हो ही नहीं सकता, जिसमें संसार को बनाने या नष्ट करने की कोई इच्छा शेष हो । यह किसी भी दैवीय शक्ति के सामर्थ्य के बाहर की वस्तु है कि वह किसी भी द्रव्य को बदल सके तथा किसी व्यक्ति को सुख-दुःख दे सके। क्योंकि हर गुण स्वतन्त्र और गुणात्मक है । प्रकृति स्वयं अपने नियमों से संचालित है । व्यक्ति को सुख-दुःख उसके कर्म और पुरुषार्थ के अनुसार मिलते हैं । अतः जैन आचार-संहिता में ईश्वर का वह अस्तित्व नहीं है, जो मुस्लिम धर्म में मुहम्मद साहब का तथा ईसाई धर्म में ईसामसीह का है । हिन्दू धर्म का सर्वशक्तिमान् ईश्वर भी जैन धर्म में स्वीकृत नहीं है, क्योंकि इससे मनुष्य को स्वतन्त्रता और पुरुषार्थ बाधित होते हैं । १९
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विश्व-संरचना में ईश्वर की भूमिका का निषेध जैनों की तरह सांख्य-दर्शन में भी किया गया है। कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर मिश्र जैसे मीमांसक भी ईश्वर को निर्माता के रूप में स्वीकार नहीं करते; क्योंकि वे विश्व को अनादि मानते हैं । जैन एवं मीमांसकों ने निर्माता ईश्वर के अस्तित्व के निषेध के लिए समान तर्कों का उपयोग किया है। वैशेषिक दर्शन के प्रारंभिक ग्रन्थों में भी ईश्वर - स्वीकृति नहीं है। पतंजलि के योगसूत्र एवं गौतम के न्यायसूत्र में भी ईश्वर को एक योगी, आप्त और सर्वज्ञ के रूप में देखा गया है । जैन दर्शन में भी मुक्त आत्मा को परमात्मा, आप्त, सर्वज्ञ आदि कहा गया है । अतः सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर के सम्बन्ध में जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रन्थों में प्रायः समान चिन्तन प्रस्तुत किया गया है ।
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जैन धर्म में यद्यपि ईश्वर जैसी सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है, जो संसार को बनाने अथवा नष्ट करने में कारण है, तथापि जैन आचार-संहिता आत्मा के उस शुद्ध स्वरूप के अस्तित्व को स्वीकार करती है, जो अपने श्रेष्ठतम गुणों के कारण परमात्मा हो चुकी है। ऐसे अनेक परमात्मा जैन धर्म में स्वीकृत हैं, जो अनन्त सुखों का अनुभव करते हैं तथा इस संसार से मुक्त हैं । ऐसे परमात्माओं को जैन आचारसंहिता में 'अर्हत्' एवं 'सिद्ध' कहा गया है । ये वे परम आत्माएँ हैं, जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर आत्मा के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार किया है। इन्हें 'आप्त', 'सर्वज्ञ' 'वीतराग', 'केवली' आदि नामों से भी जाना जाता है। इन अर्हत् एवं सिद्धों की भक्ति तथा पूजा करने का विधान भी जैन आचार संहिता में हैं, किन्तु इनसे कोई सांसारिक लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती । इनकी भक्ति उनके आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त करने के लिए ही की जाती है, जिसके लिए भक्त को स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है। इस भक्ति से व्यक्ति की भावनाएँ पवित्र होती हैं, जिससे उसका आचरण निरन्तर शुद्ध होता जाता है,
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