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जैनाचार : एक मूल्यांकन
वस्तुतः यह अर्हत्त्व, बुद्धत्व अथवा ईश्वरत्व के समक्ष की स्थिति ही है । जहाँ ब्राह्मण-संस्कृति में मुक्ति के लिए जीव को ईश्वर कृपा की अपेक्षा होती है, वहाँ श्रमण संस्कृति में नहीं । जीव जो कुछ भी करता है, उसका कर्मफल उसे ही भोगना पड़ता है, वह कर्म पापमय हो अथवा पुण्यमय । पुनः ऐसा विधान किया गया है कि कर्म-बन्धनों
पीड़ित आत्मा यदि मुक्ति की कामना करे, तो वह क्रमशः कर्म-बन्धनों को काटते-काटते आध्यात्मिक उन्नति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इस प्रयत्न में उसे सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का सम्मिलित पथ अपनाना पड़ता है। इस सन्दर्भ में प्रयत्नशील जीव अथवा साधक को अनेक नियमों, उप-नियमों का पालन मानसिक, वाचिक एवं कायिक क्रियाओं द्वारा करना होता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि इन पूर्वमान्यताओं के कारण जैन नीतिशास्त्र ने बहुत गहराई और विभिन्न विस्तृत फलक पर विस्तार पाया है
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पुनः ऐसा कहा जाता है कि जैन धर्म एवं दर्शन निवृत्तिपरक है और निवृत्तिपरक होने के कारण उसके नीतिशास्त्र भी प्रवृत्ति का विरोध करते हैं । लेकिन मेरी समझ में यह कहना उचित नहीं लगता । गहराई से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आरोप सर्वथा निराधार है । वस्तुतः निवृत्ति एवं प्रवृत्ति एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों के सम्यक् सन्तुलन से ही जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है । निवृत्तिमार्गी जीवन-दृष्टि एकान्ततः पलायनवादी दृष्टि होती है और जैनधर्म-दर्शन पलायनवादी, जीवन-दृष्टि का समर्थक कभी नहीं रहा है। उसके मूल में ही अनेकान्तवादी जीवन-दृष्टि का उद्घोष है, जो सर्वथा एकान्तदृष्टि का विरोध करता है । सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए मुनिधर्म एवं श्रावक-धर्म का विधान किया गया है, जिसे हम एक को निवृत्तिमार्ग एवं दूसरे को प्रवृत्तिमार्ग का प्रस्तोता कह सकते हैं ।
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जैन दर्शन में निश्चयनय और व्यवहारनय का विस्तृत वर्णन मिलता है । उसका एकमात्र उद्देश्य निवृत्ति एवं प्रवृत्तिधर्म की जीवन-कल्याण के लिए उपयोगिता का वर्णन करना है । अर्थात्, हम एक तरह से निवृत्ति-धर्म को निश्चयनय एवं प्रवृत्ति-धर्म को व्यवहारनय की उपमा दे सकते हैं, जो एक दूसरे के आश्रित हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में 'ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्क', अर्थात् निश्चयनय को जानने के लिए व्यवहारनय को जानना आवश्यक है । 'भगवती आराधना' में एक स्थान पर लिखा है। कि आत्मा के हित को जानते हुए ही मनुष्य के अहित की निवृत्ति और हित की प्रवृत्ति होती है, इसलिए आत्महित की ओर प्रवृत्त होना चाहिए। जैन धर्म की आचारसंहिता में व्यावहारिक एवं अध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं को निर्देशन मिलता है। वहाँ न किसी एक के प्रति आग्रह है और न दूसरे के प्रति दुराग्रह । बल्कि सम्पूर्ण जैनाचार्य में निवृत्ति
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