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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8.
अहिंसा :
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अहिंसा पर महावीर ने अधिक जोर दिया। उन्होंने कहा कि अहिंसा परमधर्म है। महावीर का अहिंसा से केवल इतना अर्थ नहीं रहा कि दूसरों को दुःख देना, सताना, मारना ही हिंसा है । वे तो कहते हैं कि दूसरों को न कोई सुख दे सकता है और न कोई दुःख । महावीर ने कहा कि अपने प्रति जो हिंसा है, उसके प्रति स्वयं को सहज रखना चाहिए। अपनी ओर से किसी के बीच में न आना, जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करना चाहिए। वही अहिंसा है ।
दूसरे शब्दों में महावीर की अहिंसा का अर्थ है, मैं ऐसा हो जाऊँ, जैसा हूँ ही नहीं, अर्थात् गहनतम अनुपस्थिति, महावीर के जीवन में यह एक अदभुत घटना है
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महावीर संन्यास लेना चाहते थे, तो उन्होंने अपनी माँ से कहा, “मैं जाऊँ, संन्यास ले लूँ?” माँ ने कहा, “मेरे सामने दुबारा यह बात मत कहना, “मैं जब तक जिन्दा हूँ, तुम संन्यास नहीं ले सकते, मुझे दुःख होगा।” महावीर चुपचाप रुक गए। यदि उनमें हिंसक वृत्ति होती, तो कहते “मैं संन्यास लेकर रहूँगा, कौन अपना, कौन पराया। माँ भी हैरान हुई, यह कैसा संन्यास? कह दिया, दुःख होगा, मत जाओ। रुक गया । फिर दुबारा नहीं कहा।
- जब माँ मर गई, तो महावीर ने श्मशान से लौटते समय भाई से कहा, “अब तो मैं संन्यास ले सकता हूँ; माँ थीं, मर गईं। भाई ने बिगड़कर कहा, 'तू भी कैसा आदमी है ? माँ मर गई है और तू संन्यास लेकर चला जायगा । जाओगे, तो मुझे दुःख होगा ।" महावीर रुक गये । भाई ने सोचा, “यह कैसा संन्यास होगा, किसी को दुःख होगा, तो रुक गये ।” महावीर ऐसे रहने लगे, मानो घर में हैं ही नहीं । भाई ने महावीर को ऐसा देखा, तो सोचा, महावीर घर में ऐसा रहता है, मानो घर में है ही नहीं । उसकी उपस्थिति - अनुपस्थिति एक ही है। घर में हो रहा है, हो रहा है, कोई दखल नहीं ।
भाई ने विचार किया, “महावीर तो मन से जा ही चुके हैं, भौतिक शरीर को रोकना व्यर्थ है ।" भाई ने अन्त में कहा, “हम तुम्हारे मार्ग में बाधक नहीं बनेंगे। तुम अगर जाना चाहते हो तो जा सकते हो।" और महावीर चले गये ।
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यही महावीर की अहिंसा का अर्थ है । यदि मेरे किसी कार्य से किसी को दुःख होता है, तो वह हिंसा हो जाती है। महावीर ने इसीलिए कहा है कि स्वयं के अच्छे-से-अच्छे जीवन की दौड़, होड़ ही हिंसा है। दूसरे या अपने को सताना दोनों ही हिंसा है; क्योंकि जो दूसरों को सतानें में असमर्थ होता है, वह अपने को सताने लगता है । आग्रह ही हिंसा है, अनाग्रह ही अहिंसा है। महावीर के सभी उपदेश अनाग्रहपूर्ण । उनसे यदि कोई विपरीत बात भी कहता, तो वे कहते यह भी ठीक हो सकता है ।
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