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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
जा सकती है स्याद् अस्ति; स्याद् नास्ति; स्याद् अस्ति-नास्ति; स्याद् अवक्तव्यमः स्याद् अस्ति अवक्तव्यम्, स्याद्नास्ति अवक्तव्यम् और स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्यम्। नयवाद :
जैन दर्शन की जैसे एक विशिष्ट देन 'स्याद्वाद' है, वैसे ही एक दूसरी देन नयवाद है। प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एकदेश को जो जानता है, वह नय है । नय के द्वारा गृहीत एकदेश न तो वस्तु है और न अवस्तु । यदि एकदेश को ही वस्तु स्वीकार किया जाता है तो उसके अन्य देश अवस्तु कहलायेंगे।
डॉ. जैन का विचार द्रष्टव्य है-पदार्थों के अनन्त गुण और पर्यायों में से प्रयोजनानुसार किसी एक गुणधर्म-सम्बन्धी ज्ञाता के अभिप्राय का नाम नय है; और नयों द्वारा ही वस्तु के नाना गुणांशों का विवेचन सम्भव है। वाणी में भी एक समय में किसी एक ही गुण-धर्म का उल्लेख सम्भव है, जिसका यथोचित प्रसंग नय-विचार के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि जितने प्रकार के वचन सम्भव हैं, उतने प्रकार के नय कहे जा सकते हैं। तथापि वर्गीकरण की सुविधा के लिए नयों की संख्या सात स्थिर की गई हैं, जिनके नाम ये हैं—नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़, और एवंभूत।
इस कही गई वस्तु में वस्तु-बहुत्व का प्रसंग आता है। यदि एक देश को अवस्तु माना जाता है तो शेष देशों को भी अवस्तु होने से वस्तु की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसलिए नय का विषय एक अंश या धर्म ही है। जब सब अंश में सब अंश गौण होते हैं, तो उनका ज्ञान नय है और जब सब अंश में सब अंश प्रधान होते हैं तब उनका ज्ञान प्रमाण माना जाता है। अतः प्रमाण से नय मिला है।
अब महावीर द्वारा कथित धर्म पर विचार किया जाय। महावीर के धर्म का वैसा कोई अर्थ नहीं है, जैसा कि अधिकांश धर्मों के लोग मानते हैं। पूजा-पाठ, शास्त्र-चर्चा आदि से महावीर का कोई सम्बन्ध नहीं है। यही कारण है कि महावीर-प्रतिपादित धर्म लोक-कल्याण से ओतप्रोत है । महावीर के धर्म का सार तत्त्व इस प्राकृत श्लोक में देखा जा सकता है :
क्षम्मो मंगलमुत्तिटुं अहिंसा संजमो तवो देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धम्मे सया मणो॥
धर्म अर्थात् धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है, वह अहिंसा, संयम और तपस्या धर्म है । जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
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