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अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन
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'स्यात्' अर्थात् 'कथंचित्' या विवक्षित प्रकार से अनेकान्त रूप से वाद, अर्थात् कथन 'स्याद्वाद' है, अर्थात् जिस अनेकान्तवाद का वाचक 'स्यात्' आदि शब्द से प्रयुक्त होता है, वह 'स्याद्वाद' है । 'स्यात्' शब्द दो हैं, एक क्रियावाचक और दूसरा अनेकान्तवाचक । स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में कहा है कि वाक्यों में प्रयुक्त ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक होता है। यहाँ 'स्यात्' क्रियापद नहीं है, 'लिंङ् लकार का क्रियापद नहीं है। किन्तु निपात रूप है। निपात रूप ‘स्यात्' शब्द के संशय आदि अनेक अर्थ हैं । वे सब यहाँ गृहीत नहीं हैं । निपात वाचक भी होते हैं और द्योतक भी। अतः ‘स्यात्' शब्द यहाँ अनेकान्त का वाचक भी है और द्योतक भी। उसे अनेकान्त का द्योतक मानने में कोई दोष नहीं है। वह अनेकान्त का सूचक है। उसके बिना अनेकान्त रूप की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अब ‘स्यात्' शब्द के पर्याय शब्द 'कथंचित्' आदि हैं। उनसे भी अनेकान्त रूप अर्थ की प्रतिपत्ति होती है । इस प्रकार ‘स्याद्वाद' अनेकान्त को विषय करके सात भंगों और नयों की अपेक्षा वस्तुस्वरूप से 'सत्' और पर रूप से 'असत्' है, इत्यादि व्यवस्था करता है।
__ जैसे 'जीव है ही', इस वाक्य में 'स्यात्' का प्रयोग इसलिए आवश्यक है कि उसके अभाव में पुद्गल की अपेक्षा भी जीव का अस्तित्व प्राप्त होता है। इसमें यह शंका होगी की जीव तो अस्तित्व-सामान्य से व्याप्त है, पुद्गल आदि अस्तित्व-विशेष से व्याप्त नहीं है। अतः उसकी निवृत्ति के लिए 'स्यात्' पद का प्रयोग निरर्थक है। इसके लिए कहा जा सकता है कि 'स्याद् जीव है ही', इस वाक्य में 'ही' है। वह बतलाता है कि जीव सब प्रकार से है, इसलिए पुद्गल की अपेक्षा भी उसका अस्तित्व प्राप्त होता है, यदि 'स्यात्' पद न लगाया जाय। इसपर कहा जा सकता है कि 'स्वरूप की अपेक्षा जीव है ही' यह उस 'ही' का अभिप्राय है। तब हम कहेंगे कि स्वरूप की अपेक्षा जीव है ही। इसका मतलब हुआ कि पर के अस्तित्व की अपेक्षा जीव नहीं है। तब जीव है ही, इस वाक्य में 'ही' का प्रयोग व्यर्थ हो जाता है । 'ही' का प्रयोग तो तभी सार्थक होता है, जब सब प्रकार से जीव का अस्तित्व माना जाय और नास्तित्व को न माना जाय । अतः जीव अस्तित्व-सामान्य की अपेक्षा है, पुद्गलादिगत के अस्तित्व-विशेष की अपेक्षा नहीं है। यह बोध कराने के लिए 'स्यात्' का प्रयोग करना उचित है; क्योंकि 'स्यात्' पद इस प्रकार के अर्थ का द्योतक है। इसके लिए यह शंका हो सकती है कि जो भी वस्तु सत् है, वह स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से ही सत् है। परद्रव्यादि की अपेक्षा सत् नहीं है, अतः परद्रव्यादि का प्रसंग लाना व्यर्थ है। यह शंका कुछ अर्थ में सही हो सकती है। परन्तु विचारणीय यह है कि उस प्रकार के अर्थ का बोध तो 'स्यात्' शब्द से ही प्राप्त किया जा सकता है । यद्यपि ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक या वाचक है, यह मान लिया जाय, किन्तु लोक में प्रत्येक वाक्य में इसका प्रयोग नहीं देखा जाता।
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