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अनेकान्तवाद और अहिंसा : एक शास्त्रीय परिशीलन
(१) सम्यक् दर्शन :
यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा का होना सम्यक् दर्शन है। यह स्वभावसिद्ध भी होता है, और इसे विद्योपार्जन और अभ्यास के द्वारा भी सीखा जा सकता है। श्रद्धा के उदय होने के लिए अश्रद्धा का उदय करनेवाले कर्मों का संवर या निर्जरा किया जाना आवश्यक है I
सम्यक् दर्शन में अन्धविश्वास नहीं है। तीर्थंकरों के उपदेश को आँख मूँदकर नहीं, किन्तु उन्हें युक्तिपूर्ण सिद्ध करके मानना चाहिए । अतः हम कह सकते हैं कि जैनमत युक्ति-हीन नहीं है, प्रत्युत युक्ति-प्रधान है । 'षड्दर्शनसमुच्चय' में कहा गया है कि 'मेरा महावीर के प्रति कोई पक्षपात नहीं है और न कपिल आदि अन्य दर्शनिकों के प्रति द्वेष ही है। मैं युक्तिसंगत वचन को ही मानता हूँ, वह चाहे किसी का हो :
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न मे जिने पक्षपातो न दोषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तद् ग्राह्यं वचनं मम ।।
जैन दार्शनिकों का कथन है कि लोग हमारे उपदेशों का अधिकाधिक मनन करते हुए ही उसका अध्ययन करें। तब उनपर विश्वास जम जाता है और वह क्रमशः बढ़ता जाता है ।
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(२) सम्यक् ज्ञान :
सम्यक् दर्शन में जैन उपदेशों के केवल सारांश का ज्ञान प्राप्त रहता है, किन्तु सम्यक् ज्ञान में जीव और अजीव के मूल तत्त्वों का विशेष ज्ञान होता है। साथ ही सम्यक् ज्ञान असन्दिग्ध और दोषरहित होता है । जिस प्रकार सम्यक् दर्शन के प्रतिबन्धक कर्म ही होते हैं, उसी प्रकार सम्यक् ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्म ही होते हैं । अतः इसके लिए कर्मों का नाश होना आवश्यक है। कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त होता है ।
(३) सम्यक् चारित्र :
अहित कार्यों का वर्जन और हितकार्यों का आचरण ही सम्यक् चारित्र है । सम्यक् चारित्र के द्वारा जीव अपने कर्म से मुक्त हो सकता है; क्योंकि कर्मों के कारण ही बन्धन और दुःख होते हैं । ये कर्मों को रोकने तथा पुराने कर्मों को नष्ट करने के लिए निम्नांकित क्रियाएँ आवश्यक हैं :
क. 'पंचमहाव्रत का पालन करना चाहिए।
ख. चलने, बोलने, भिक्षादि ग्रहण करने तथा पुरीष और मूत्र का त्याग करने में समिति या सतर्कता का अवलम्बन करना चाहिए ।
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