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जैनदर्शन का वैशिष्ट्य
डॉ. रामजी सिंह किसी भी दार्शनिक विचार का महत्त्व इस बात में होना चाहिए कि वह प्रकृत वास्तविक समस्याओं पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार करे । भारतीय दार्शनिक परम्परा में शब्द-प्रमाण का प्रामुख्य इस प्रकार के दार्शनिक महत्त्व को कुछ कम ही कर देता है। लगता है कि किसी विचारधारा की रूपरेखा तो शब्द-प्रमाण प्रस्तुत कर देती है और तत्त्वदर्शन केवल उसे विकसित करता है। लेकिन इसके विपरीत जैन दार्शनिक परम्परा में ऐसा प्रतीत होता है कि साफ स्लेट पर लिख रहा हो। दार्शनिक दृष्टि के विकास के लिए परम्परा-निर्मित पूर्वाग्रहों से मुक्त स्वतन्त्र विचारधारा का निर्माण एक महत्त्व रखता है।
जैन दृष्टि में भी शब्द-प्रमाण है, लेकिन यह जैन दृष्टि का अनुगामी है, पुरोगामी नहीं। इस प्रकार जैन दर्शन की स्वायत्ता परिलक्षित होती है। इसीलिए 'लोकतत्त्व-निर्णय' में हरिभद्र ने कहा है :
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्ववचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। श्रुति या आगम का जितना ही अधिक बोझ होगा, दर्शन की तेजस्विता उतनी ही कम होगी।
जैनदर्शन का वैशिष्ट्य एक दूसरे अर्थ में भी है, वह है दर्शन के अर्थ में । दर्शन का अर्थ है दृष्ट-दृश्यते अनेन इति दर्शनम्। किसी भी तत्त्व के परीक्षण में हमारी दृष्टि या हमारी रुचि, परिस्थिति या अधिकारिता पर निर्भर करती है। इस अर्थ में दर्शन व्यक्ति के दृष्टिभेद से प्रभावित होगा। दृष्टिभेद से दर्शन-भेद होता ही है। किसी भी तत्त्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि ऐकान्तिक होना उचित नहीं है; क्योंकि तत्त्व अनैकान्तिक है-'अनन्तधर्मात्मकं वस्तु'। प्रत्येक तत्त्व अनेकरूपात्मक है। इसीलिए कोई एक और ऐकान्तिक दृष्टि से उन सबका एक साथ तात्त्विक प्रतिपादन नहीं कर सकता। भारतीय वैदिक दर्शन में अद्वैत-दृष्टि, बौद्ध दर्शन में विभज्यवादी दृष्टि और लोकायत-दर्शन में मौलिक दृष्टि है। ये सभी दृष्टियाँ
* कुलपति, जैनविश्वभारती संस्थान, लाडनूं--३४१ ३०६ (राजस्थान)
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