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प्राकृत-अपभ्रंश छन्द : परम्परा एवं विकास
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अपभ्रंश रहा है। संस्कृत में इनकी कोई परम्परा नहीं मिलती। अपभ्रंश-साहित्य में तीन प्रकार के बन्ध पाये जाते हैं—दोहाबन्ध, पद्धड़ियाबन्ध और गेय पदबन्ध । इनके अतिरिक्त छप्पयबन्ध और कुडलियाबन्ध भी मिल जाते हैं। इनकी सबकी पूरी परम्परा हिन्दी-साहित्य में जीवन्त रूप में उपलब्ध होती है। इसी से डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है:
इस प्रकार हिन्दी-साहित्य में प्रायः पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं । शायद ही किसी प्रान्तीय साहित्य में ये सारी-की-सारी विशेषताएँ इतनी मात्रा में और इस रूप में सुरक्षित हों ।"२०
प्राकृत-अपभ्रंश में निहित छन्द- सम्बन्धी ज्ञान-भाण्डार हमारी संस्कृति एवं हमारे साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इसका संरक्षण एवं संवर्धन हमारा राष्ट्रीय नैतिक उत्तरदायित्व है। इसके लिए आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों की उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रम में छन्दःशास्त्र को भी स्थान दिया जाय तथा शिक्षण-संस्थाएँ इसके अध्ययन-अध्यापन की सम्यक् व्यवस्था करें । सम्यक् अध्ययन-अध्यापन के अभाव के कारण उच्च कक्षाओं से निकलनेवाले छात्र इस विषय से सर्वथा अनभिज्ञ रह जाते हैं। मुक्तछन्द के आन्दोलन ने भी ऐसी मनोवृत्ति को उत्पन्न करने में सहायता दी है। ___ आज हिन्दी में शताधिक शोधग्रन्थ प्रतिवर्ष प्रस्तुत हो रहे हैं, किन्तु इनमें से बहुत कम ऐसे हैं, जो छन्दःशास्त्र से सम्बन्धित हों। छन्दोविषयक विवेचनात्मक ग्रन्थ-प्रणयन की ओर से हमारे विद्वान् एकदम उदासीन हैं और यह उदासीनता हमारे साहित्य के विकास के लिए वांछनीय नहीं है।
कोशविज्ञान भाषाविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होने के साथ-साथ उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त पूर्वजों की ज्ञान-सम्पत्ति को सुरक्षित रखने एवं प्रोन्नत-प्रचारित करने का महत्त्वपूर्ण माध्यम भी है। भारतवर्ष में कोशग्रन्थों के प्रणयन का इतिहास ईसा के एक हजार वर्ष पूर्व से ही प्राप्त होने लगता है । निघण्टुओं का रचनाकाल लगभग एक हजार वर्ष ईसा-पूर्व है। इसके बाद यहाँ सैकड़ों कोशग्रन्थों का निर्माण हुआ, जिनमें अमरकोश, मेदिनीकोश आदि आज भी महत्त्वपूर्ण हैं। आजकल प्रत्येक विषय के अलग-अलग कोशग्रन्थ प्रकाशित हो रहे हैं, जैसे इतिहास कोश, अलंकार-कोश, भाषाविज्ञान कोश, नाटक कोश, उपन्यासकोश आदि। इन कोशग्रन्थों में तद्विषयक पारिभाषिक शब्दों, घटनाओं एवं तथ्यों का विवरणात्मक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया रहता है।
प्राकृत-अपभ्रंश-साहित्य के संरक्षण, संवर्द्धन एवं श्रीवृद्धि के लिए आवश्यक है कि जहाँ एक ओर साहित्य की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन-अध्यापन की सम्यक्
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