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प्राकृत-अपभ्रंश छन्द : परम्परा एवं विकास
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गया है। इन गणों के महत्त्व का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि छन्दःशास्त्र के आचार्यों ने इसकी उत्पत्ति ब्रह्म से मानी है और 'वृत्तरत्नाकर' के अनुसार इन गणों से सम्पूर्ण वाङ्मय उसी प्रकार व्याप्त है, जिस प्रकार विष्णु से त्रैलोक्य।
संस्कृत वर्णवृत्तों में वैदिक ऋषियों की स्वातन्त्र्यप्रियता का स्थान नियमों की कठोरता ने ले लिया, जिसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि ये छन्द-प्रयोग शिक्षित लोगों की ही सम्पत्ति बनकर रह गये और जन-सामान्य इनसे दूर होता गया। जन-सामान्य ने अपनी भावयित्री प्रतिभा की सन्तुष्टि के लिए भिन्न मार्ग का आश्रय लिया, जिसकी स्वाभाविक परिणति प्राकृत और अपभ्रंश के छन्दों के रूप में हुई।
प्रारम्भ में प्राकृत जनसामान्य की बोली थी और उसमें काव्य-प्रणयन जनसामान्य के द्वारा ही होता था। भगवान् बुद्ध एवं महावीर ने अपना दिव्य उपदेश प्राकृत में ही दिया था। बाद में इसके लालित्य से प्रभावित होकर पण्डित-समुदाय भी इसकी ओर आकृष्ट हुआ और इसमें अबाध रूप से श्रेण्य साहित्य की सृष्टि होने लगी। आचार्यों ने भी जनसामान्य में लोकप्रिय छन्दों को शास्त्रीय जामा पहनाने की चेष्टा की । गाथा, जिसे संस्कृत में आर्या कहा गया, प्राकृत का सबसे पुराना छन्द है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र (१६.१५१-१६३) में गाथा और इसके भेदोपभेदों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। संस्कृत के आचार्यों ने आर्या के रूप में गाथा एवं अन्य छन्दों को अपना अवश्य लिया, किन्तु इनकी प्रकृति वार्णिक नहीं, बल्कि मात्रिक है । डा. वेलंकर की मान्यता है कि संस्कृत के अर्धसमवृत्तों का प्रचलन प्राकृत के अनुकरण पर ही हुआ है और कुछ नये मात्रावृत्त जो संस्कृत में आये, वे प्राकृत-छन्दों के असफल अनुकरण-मात्र हैं। तालवृत्त
संस्कृत-छन्दों से भिन्न लोक में छन्द की जो प्रणाली विकसित हो रही थी, वह ताल पर आश्रित थी। इन छन्दों में गीतात्मकता अधिक होती थी और लोकरंजन के लिए ये लोककवियों या लोकनटों के द्वारा गाये जाते थे। ये छन्द ताल-प्रधान थे। संगीत में दो तत्त्व प्रधान होते हैं-स्वर और ताल। संगीतशास्त्री स्वर को अधिक महत्त्व देते हैं और जन-सामान्य ताल को । स्वर में सूक्ष्मता होती है और ताल में अपेक्षाकृत स्थूलता। आज भी जन-जातियाँ नृत्य-गीतादि में ताल को आधार बनाकर ही अपने हृदय की आनन्दानुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। तालवृत्तों में ताल की बलाघातपूर्ण नियमित आवृत्ति होती है, स्वरों के आरोह-अवरोह को न्यून महत्त्व दिया जाता है । इसके अतिरिक्त अक्षरों, वर्णों या लघु-गुरु की नियमित आवृत्ति का भी, जैसा कि संस्कृत वर्णवृत्तों में होता है, इसमें कोई स्थान नहीं होता। वर्ण-संगीत और स्वर-संगीत शिक्षित वर्ग की चीज है और तालसंगीत लोक-सामान्य की। लोकनृत्य में जिस प्रकार ताल के आधार पर
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