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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
छन्दोऽनुशासन ३ :
आचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित यह ग्रन्थ संस्कृत-भाषा में लिखित है और संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के सभी छन्दों का सांगोपांग विवेचन करता है। यह सूत्रशैली में लिखित है, किन्तु ग्रन्थकार ने स्वयं इसकी विवृत्ति भी कर दी है। इसमें जितने छन्दों का विवेचन है, उतना अन्य किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। हेमचन्द्र सिद्धान्तवादी अधिक थे, इसलिए, उस युग में प्रचलित-अप्रचलित सभी छन्दों को उन्होंने अपनी विवेचना का आधार बनाया है। उन्होंने परम्परा से प्राप्त और लोक-व्यवहार में प्रचलित प्रायः सभी छन्दों का लक्षण, वर्गीकरण और उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनका प्रयास है कि उस समय तक प्राप्त कोई भी छन्द विवेचन के लिए छूटने न पाये। उनकी चिन्ता प्राकृत-अपभ्रंश को संस्कृत जितनी महत्ता दिलाने की थी, इसलिए उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ पण्डितों द्वारा उपेक्षित उन अपभ्रंश छन्दों को भी महत्ता दी, जो लोक में प्रचलित थे। आचार्यश्री ने सरस उदाहरणों द्वारा उन्हें और भी लोकप्रिय बनाया। उन्होंने ऐसे अनेक छन्दों का उल्लेख किया है, जो पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलते। हेमचन्द्र ने मात्रिक छन्दों के लक्षण मात्रागणों (ष, प, च, त, द) द्वारा दिये हैं। छन्दकोश४:
इसके रचयिता रत्नशेखर हैं। यह एक छोटी पुस्तिका है और इसमें मात्र ७४ पद्य हैं, जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश के छन्दों का विवेचन लक्षण-लक्ष्य शैली में किया गया है। इसका रचनाकाल अनुमानतः १४वीं शती है। प्राकृतगलम्५ :
इसके लेखक का नाम अज्ञात है। रचनाकाल अनुमानतः १४वीं शती है। ग्रन्थ में मात्रिक और वार्णिक दोनों प्रकार के छन्दों का विवेचन है। मात्रिक छन्दों के अध्ययन की दृष्टि से इस ग्रन्थ का महत्त्व अक्षुण्ण है। आचार्य हेमचन्द्र ने व्यवहार की अपेक्षा सिद्धान्त को अधिक महत्त्व दिया था, किन्तु इस ग्रन्थ में उन्हीं छन्दों का विवेचन है, जो उस युग के काव्यों में प्रयुक्त हो रहे थे। 'प्राकृतगलम्' की एक विशेषता यह भी है कि छन्दों के लक्षण उसी छन्द में दिये गये हैं, जिनका लक्षण बताना रचनाकार को अभीष्ट है। विरहांक ने छन्दों के उदाहरण अलग से नहीं दिये हैं, बल्कि लक्षण ही उदाहरण का काम करते हैं; किन्तु प्राकृतपैंगलम् में विषय को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण भी अलग से प्रस्तुत किये गये हैं। अपभ्रंश के कुछ प्रचलित छन्दों का, न जाने क्यों, स्वयम्भू एवं हेमचन्द्र ने स्पर्श नहीं किया था, जैसे दोहा या चौपाई । हेमचन्द्र ने दोहक, उपदोहक या स्वयम्भू ने द्विपदक के द्वारा इसे लक्षित किया था, किन्तु सर्वप्रथम 'प्राकृतपैंगलम्' में ही छन्दःशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में दोहा का विवेचन प्रस्तुत किया गया। 'प्राकृतपैंगलम्' के प्रभाव
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