________________
महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन-दृष्टि
131
महावीर दोनों के ही अमृतमय वचनों के अनुसार संसार में क्या आनन्द और क्या हँसना। चारों ओर अन्धकार छाया हुआ है, मनुष्य ज्ञान का दीप लेकर सत्य को क्यों नहीं तलाशता।४४ लोभी मनुष्य के लिए सोने और चाँदी के कैलास की तरह असंख्य विशाल पर्वत प्राप्त होने पर भी कुछ नहीं के बराबर है; क्योंकि मनुष्य की तृष्णा आकाश की तरह अनन्त है (महावीर) : (क) कि नु हासो किमानंदो निच्चं प्रज्जलिते सति।
अंधकारेण ओनद्धा प्रदीपं न गवेसथ ।। (ख) सुवण्ण रूपस्स उ पव्वया भवे सियाहु केलास समा असंख्यया।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।। आधुनिक भारत और समस्त विश्व के समग्र कल्याण और ज्ञान-प्रकाश के लिए अहिंसामूलक जीवन-दर्शन को आचरण में ढालने की नितान्त आवश्यकता है। सन्दर्भ-स्रोत :
१. द कल्चरल हेरिटेज ऑफ इण्डिया पृष्ठ ४००-४०१: हीरालाल जैन २. आवश्यकनियुक्ति, पृष्ठ ८०-८३ ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व १०, सर्ग २, श्लोक २२ ४. ललितविस्तर : लिपिशाला-संदर्शन-परिवर्त ५. बुद्धचरितः पृष्ठ १४-१५. रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी-अनुवाद; आवश्यकचूर्णि,
भाग १, पत्र-२४६ ६. (क) वासुपूज्यो महावीरो मल्लिः पार्थो यदुत्तमः । कुमारा निर्गता गेहात् पृथिवीपतयोऽपरे ।
-पद्मपुराण, २०.६७. (ख) मल्ली आरिष्टनेमी पासो वीरो य वासुपूज्जो ___ एए कुमारसीहा गेहाओ निग्गया जिणवरिंदा ॥
--पउमचरिय, वीसइमो उद्देशो, पत्र ९८-२ ७. ललितविस्तर : अभिनिष्क्रमण परिवर्त ८. महाभिनिष्क्रमण का दृश्यांकन अजन्ता, अमरावती, साँची और नागर्जुनकोण्डा में ९. बुद्धचरित : ६/६७ अश्वघोष १० अदृष्टतत्त्वो विषयोन्मुखेन्द्रियः श्रयेयं न त्वेव गृहात् पृथग्जनः :-बुद्धचरित ६९,
अश्वघोष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org