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Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
के क्षय से शान्ति पा जाता है। यह शान्ति या वीतरागता निर्वाण ही नहीं, उससे भी कहीं उच्च है। उन्होंने घोषित किया कि केवल अपने को मुक्त करने से क्या, यदि सब प्राणियों को दुःखजाल से मुक्त नहीं किया :
किं मे एकेन तिण्णेन पुरिसेन धम्मदसिना।
सव्वञ्जतं पापुणित्वा सांतारेस्सं सदेवकं ॥२५ प्रारम्भिक बौद्ध चिन्तन नितान्त आडम्बरहीन था। बुद्ध ने अपने समय में विभाजित समाज को, जातिगत भेद को खण्डित कर सबको एकसूत्र में बाँधना चाहा। धर्म की साधना का अधिकार उन्होंने मनुष्य-मात्र को दिया। जातिगत विभाजक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया और सबसे बड़ी बात यह कि मैत्री और करुणादृष्टि के प्रसार पर बल दिया। यही कारण है कि अगली कुछ सदियों में ही, ईसामसीह के प्रादुर्भाव से पहले ही विश्वधर्म के पद पर प्रतिष्ठित हो गया बौद्धधर्म ।
महावीर-प्रवर्तित जैनधर्म का परमोच्च लक्ष्य है कैवल्य-ज्ञान की प्राप्ति । वह कैवल्य पद या मोक्ष सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की सतत साधना से ही सम्भव है।३६ जैन चिन्तन में भी बौद्धधर्म की भाँति सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, कर्मविभाजन
और आचरण की पवित्रता से मोक्षप्राप्ति की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है। गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में जिन कुछ जटिल प्रश्नों को 'अव्याकृतानि' कहकर उपेक्षा की थी, महावीर वर्द्धमान ने उन जटिल प्रश्नों का समाधान बहुत ही तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत किया है । बौद्ध चिन्तन में जहाँ ‘अनात्म' पर बहुत बल डाला गया है, वहाँ जैन चिन्तन में 'आत्मा' के अस्तित्व, उसकी अनन्तता और पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया गया है। आत्मवादप्रधान जैन चिन्तन में कोई भी वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न अनित्य ही। संसार की समस्त वस्तुओं का निर्माण परमाणुओं के संगठन से होता है । परमाणुपुंज को 'स्कन्ध' कहते हैं। ये सादि, अनादि, अनन्त, नित्य, मूर्त और अमूर्त भी होते हैं। पृथ्वी, जल, तेज आदि सभी द्रव्य इन्हीं परमाणुओं के संघात हैं। इन परमाणुओं को जीवन में सक्रिय और नित्य परिवर्तनशील देखकर ही मनुष्य के अन्तर में जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति पाने की प्रेरणा जगती है। तभी वह जीव या आत्मा संवर (ज्ञानेन्द्रियों
और कर्मेन्द्रियों के संयम) द्वारा कर्मपरमाणुओं से मुक्त और निर्लिप्त हो, तृष्णाओं के बन्धन को छिन्न-भिन्न कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जैन और औपनिषदिक चिन्तन :
जैन चिन्तन जीवात्मा के अस्तित्व और पुनर्जन्म का प्रतिपादन कर उपनिषद् की आत्मविद्या से जुड़ा हुआ है, वहीं सृष्टि का कर्ता ईश्वर को न मानकर 'प्राकृतिक तत्त्वों में विद्यमान परमाणुओं के सुनिश्चित नियमों के अनुसार सृष्टि-रचना होने के तथ्य का
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