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बुद्ध ने तो उसे ही 'सारथि' बताया, जो चढ़े हुए क्रोध के आवेग को भ्रान्त रथ के वेग की भाँति रोक लेता है । अन्य लोग तो लगाम पकड़नेवाले भर होते हैं :
यो वे उप्पतितं कोथं रथं भन्तं व धारये ।
२६
तमहं सारथिं बूमि, रस्मिग्गाहो इतरो जनो ॥
इन विचारों से गीता के इस कथन का अद्भुत साम्य है :
Vaishali Institute Research Bulletin No. 8
शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक् शरीरविमोक्षणात् । कामक्राधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥
.२७
काम-क्रोध से उत्पन्न वेग को जो सह सके, वही युक्त और सुखी मनुष्य है । दोनों के ही उपदेशों में मनुष्य की मूर्खता का बड़ा ही प्रभावोत्पादक वर्णन मिलता है । मूर्ख प्रतिमास कुश के नोक से भोजन करे, तो भी वह धर्मज्ञ के सोलहवें अंश जितना भी धर्म का भागी नहीं होता :
तुलनीयः
तुलनीय :
मासे मासे तु जो बाले, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुक्खाय धम्मस्स, कलं अग्घई सोलसि ।।
२८
दोनों ही महापुरुषों की ज्ञानप्राप्ति के लिए समर्पित भिक्षु की अवधारणा में अद्भुत
साम्य है :
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मासे मासे कुसग्गेन बालो भुंजेनं भोजनं । न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलसिं ॥
,२९
हत्सञ्ञतो, पादसञ्ञतो वाचाय सञ्ञतो, सञ्ञतुत्तमो । अज्झत्तरतो समाहितो, एको संतुसितो तमाहु
.३०
भिक्खु ॥
हत्थ संजए पाय संजए, वायसंजए संज इंदिए । अज्झपरये सुसमाहि अप्पा, सुत्तत्थं च वियाणइ जे स भिक्खु ॥
३१
जो हाथ, पाँव, वाणी तथा अन्य इन्द्रियों में संयत है, अध्यात्मरत, समाहित और सन्तुष्ट है, वह भिक्षु होता है। दोनों के चिन्तन में अद्भुत साम्य ही नहीं, भाषा और भाव की दृष्टि से भी दोनों एक हैं I
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