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Vaishali Institute Research Bulletin No.8
'गणभेद' नामक अप्रकाशित कन्नड़ग्रन्थ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या कोपन यापनीयों का मुख्य पीठ था ।२३ अतः कोप्पल या कोपन से सम्बन्धित होने के कारण जटासिंहनन्दी के यापनीय होने की सम्भावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है।
(५) यापनीय-परम्परा में मुनि के लिए 'यति' का प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है । यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन को 'यतिग्रामाग्रणी' कहा गया है । हम देखते हैं कि जटासिंहनन्दी के इस ‘वरांगचरित' में भी मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग बहुतायत से हुआ हैं ।२४ ग्रन्थकार की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती है।
(६) 'वरांगचरित' में सिद्धसेन के 'सन्मतितर्क' का बहुत अधिक अनुसरण देखा जाता है। अनेक आधारों से यह सिद्ध होता हैं कि 'सन्मतितर्क' के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर-परम्परा से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। यदि वे ५वीं शती के पश्चात् हुए हैं, तो निश्चित ही श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं, तो अधिक-से-अधिक श्वेताम्बर
और यापनीय परम्परा की पूर्वज उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे। उनके ‘सन्मतितर्क' में क्रमवाद के साथ-साथ युगपद्वाद की समीक्षा, आगमिक परम्परा का अनुसरण, कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में होना आदि तथ्य इसी सम्भावना को पुष्ट करते हैं। 'वरांगचरित' के २६वें सर्ग के अनेक श्लोक 'सन्मतितर्क' के प्रथम और तृतीय काण्ड की गाथाओं का संस्कृत रूपान्तरण-मात्र लगते हैं।
देखें:
वरांगचरित
सन्मतितर्क १.६
२६.५२ २६.५३ २६.५४ २६.५५ २६.५७ २६.५८ २६.६० २६.६१ २६.६२ २६.६३ २६.६४ २६.६५ २६.६९
१.१२ १.१७ १.१८ १.२१ १.२२ १.२३-२४ १.२५ १.५१ १.५२ ३.४७
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