________________
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में वर्णित तीर्थंकर
सातवें भव में मरुभूति का जीव ललितांगदेव के रूप में तथा कमठ का जीव शैरव नरक में उत्पन्न हुआ। आठवें भव में मरुभूति सुवर्णबाहु के रूप में तथा कमठ सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ। एक दिन तपस्यारत सुवर्णबाहु पर सिंह ने आक्रमण कर उनके प्राण ले लिये। नवे भव में मरुभूति का जीव देवता तथा कमठ का जीव नरकवासी हुआ।२३ दसवें भव में मरुभूति का जीव पार्श्वनाथ तथा कमठ का जीव कठ नामक साधु के रूप में अवतरित हुआ।
दृश्यांकन में वितान पर उत्तर की ओर सुर्वणबाहु मुनि कायोत्सर्ग में खड़े हैं तथा उनके समीप ही आक्रमण की मुद्रा में सिंह बना है। आकृतियों के नीचे 'कनकप्रभमुनि'
और 'सिंह' लिखा है। आगे मरुभूति का देवता रूप में तथा कमठ के जीव को नरक में प्राप्त होनेवाली विभिन्न यातनाओं का अंकन है। पूर्वभवों के चित्रण के पश्चात् पार्श्वनाथ के जन्म एवं जन्माभिषेक का अंकन है।
पश्चिम की ओर गज पर बैठी तीन आकृतियों के नीचे ‘पार्श्वनाथ' लिखा है। आगे कठ साधु के पंचाग्नि तप का अंकन है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में उल्लेख है कि कठ साधु द्वारा पंचाग्नि तप करते समय पार्श्वनाथ ने अवधिज्ञान से यह जान लिया कि साधु के अग्निकुण्ड में जलते हुए एक काष्ठ में एक सर्प झुलस रहा है। पार्श्वनाथ के आदेश पर उस काष्ठ को चीर कर सर्प को निकाला गया। अत्यधिक जल जाने के कारण सर्प की मृत्यु हो गई। अगले जन्म में यही सर्प नागराज धरण हुआ, जिसने पार्श्वनाथ की तपस्या के समय मेघमालिन् असुर के उपसर्गों से पार्श्वनाथ की रक्षा की थी। इस घटना के बाद ही पार्श्वनाथ को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने दीक्षा ग्रहण करली ।२४
___ दृश्य में कठ साधु के समक्ष ही गजारूढ़ पार्श्वनाथ को दिखाया गया है। आगे परशु से लकड़ी चीरती हुई एक आकृति बनी है और पास ही लकड़ी से निकला सर्प भी द्रष्टव्य है। आगे केशलुंचन करती पार्श्वनाथ की आकृति है। दक्षिण की ओर कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े तपस्यारत पार्श्वनाथ के शीर्ष भाग पर सर्पफणों का छत्र भी बना है, जो तपस्या के समय मेघमालिन् द्वारा उपस्थित किये गये उपसर्ग (वर्षा) के समय धरणेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथ की रक्षा से सम्बन्धित है। पार्श्वनाथ के समीप ही मेघमालिन् को क्षमा याचना करते हुए दिखाया गया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में उल्लेख है कि जब पार्श्वनाथ मेघमालिन् द्वारा उपस्थित किये गये विभिन्न उपसर्गों से अविचलित रहे, तब मेघमालिन् ने अपनी पराजय स्वीकार कर पार्श्वनाथ से क्षमा-याचना की।५।
मध्यवर्ती आयत में २४ जिनों के माता-पिता का सामूहिक अंकन हुआ है, जिनके नीचे उनके नाम भी लिखे हैं। यह तीर्थंकरों के माता-पिता के निरूपण के प्रारम्भिक उदाहरणों में एक है। शान्तिनाथ मन्दिर की पूर्वी भ्रमिका के वितान पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org