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अनेकान्तवाद
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मुद्रा है। एक ही ईश्वर को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, तथा काल रूप अष्टमूर्ति माना जाता है। सांख्य दर्शन में सत, रज और तम इन तीनों परस्पर विरुद्ध गणों का समावेश एक ही प्रकृति में मानना स्पष्ट रूप से अनेकान्त दृष्टि का समर्थन है। इसी लिए आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं_ “इच्छन्प्रधानं सत्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फित गुणैः ।।
सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।। १०
डॉ० संपूर्णानन्दजी लिखते हैं कि “साधारण मनुष्य को यह समझने में कठिनाई होती है कि एक ही वस्तु के लिए एक ही समय में 'है और नहीं है' दोनों बातें कैसे कही जा सकती हैं। जो घटना या वस्तु एक के लिए भूतकालिक है, वही दूसरे के लिए वर्तमान की और तीसरे के लिए भविष्यत् की है।" इस बात को स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि एक ही पदार्थ में भिन्नता और अभिन्नता साथ-साथ रहती है जो हम ऊपर देख चुके हैं । एक और उदाहरण भी देख सकते हैं कि समुद्र में लहर उठती है। यहाँ लहर समुद्र से एकता रखते हुए भी समुद्र नहीं है और समुद्र से भिन्न भी नहीं है। यह भिन्नता नाम- रूप के कारण है। इसमें लहर को समुद्र से भिन्न और अभिन्न दोनों बतलाया गया है।
___ व्यवहार में अनेकान्त का अर्थ है विचार और बुद्धि में लचीलापन पैदा करना। लचीलेपन से ही समन्वय की भावना प्रकट होती है । विचार में हम किसी भी मत को पकड़कर बुद्धि को उसमें प्रतिबद्ध न बनावें अपितु बुद्धि को भावना या पक्ष से उन्मुक्त रखकर पूर्ण तटस्थता से दूसरे के मत को भी ध्यान में रखें। अनेकान्त दृष्टि का महान कार्य है कि वह दर्शकों के पारस्परिक मतभेदों को मध्यम मार्ग निकाल-दूर करने का प्रयत्न कर समन्वय का मार्ग प्रशस्त करता है। एकता के बीच अनेकता और अनेकता में भी एकता इसका मुख्य दृष्टि बिन्दु है। स्याद्वाद का जितना सम्बन्ध अध्यात्म से है, उतना ही भौतिक जगत् से भी है। जैनों का अनेकान्तवाद कोई ऐसा गढ़ा हुआ सिद्धान्त नहीं है, जिसमें जैनदर्शन की वैयक्तिक दृष्टि का आभास मिलता हो, वह तो लोकदृष्टि जितना उपयोगी है। विचारदृष्टि से भी उतना ही उपयोगी है। प्राचीनकाल में दर्शन के क्षेत्र में अनेकान्त की उपयोगिता कायम हुई थी। आज हम ऐसा सोचने पर बाध्य होते हैं कि आधुनिक युग में धार्मिक क्षेत्र के अलावा सामाजिक क्षेत्र आदि के परिवेश में इस सिद्धान्त की उपयोगिता कितनी और कैसी है? इम अपने मष्तिष्क को किसी एक दृष्टिबिन्दु से प्रतिबद्ध करलें तो ज्ञान का मार्ग और व्यवहारिकता अवरुद्ध हो जाती है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए हमें अपने मस्तिष्क को अप्रतिबद्ध, उन्मुक्त और अनाग्रही रखना होगा तभी वस्तु का यथार्थ बोध हो सकता है। कोरी वैचारिकता उपयोगी नहीं हो सकती, जब तक कि उसे व्यावहारिक भूमि पर उपयोगी सिद्ध न किया जा सके। प्रत्येक विचार बिन्दु में समन्वय एवं सामंजस्य की आवश्यकता है।
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