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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्वशक्ति है, जिससे जीव का केवल ज्ञान स्वभाव भी नष्ट हो जाता है।
इस प्रकार जितने अंशों में चेतनगुण का घात हो रहा है, उतने अंशों में अचेतनभाव है। जीव के पाँच स्वतत्त्व भावों में से एक औदयिक भाव है, जिसके इक्कीस भेदों में से एक अज्ञान भी भेद है। कहा भी है 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ च ॥ १ ॥ गति कषाय लिङ्गमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैषडभेदाः॥६॥
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तत्त्वार्थ सूत्र
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इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में भी अज्ञान (अचेतन) को भी जीव का स्वतत्त्व कहा गया है; क्योंकि जीव का यह अचेतन भाव द्रव्यकर्मों के सम्बन्ध से होता है और पौद्गलिक कर्म जीव से भिन्न द्रव्य है, इसलिये असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव में अचेतन भाव है।
आलापपद्धति में कहा है
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जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभावः ॥ १६२॥
विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय की अपेक्षा जीव का भी अचेतन स्वभाव है। आत्मा में सत्, असत् आदि अनेक विकल्पों का समूह है
आत्मा का जो ज्ञायक स्वभाव है, वह स्वतः स्वभाव से समुत्पन्न है; है; क्योंकि पदार्थ का स्वभाव परनिरपेक्ष होता है, मात्र उसका विभाव परसापेक्ष रहता है, जैसे जीव का ज्ञानस्वभाव किसी अन्य पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न नहीं है, परन्तु उसका रागादिक विभाव चारित्रमोह कर्म के उदय से समुत्पन्न है। इस प्रकार सहज स्वभाव से समुत्पन्न जीव का ज्ञायक स्वभाव विधि और निषेध रूप है - सामान्य विशेष की अपेक्षा नित्यानित्यात्मक, एकानेक तथा स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा तद्तद्रूप है। जब सहज स्वभाव ही इस प्रकार का है, तब उसमें जो सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य, तथा तद्, अतद् आदि के विकल्प उछल रहे हैं, उसमें आश्चर्य ही किस बात का है ?
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आत्मा एक और अनेक है
व्यवहारनय से अनन्त ज्ञेयों को जानने की अपेक्षा जो केवलज्ञान अनन्तरूपता को प्राप्त हो रहा था, निश्चयनय से वही केवलज्ञान एक आत्मा को जानने के कारण एकरूपता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार व्यवहारनय से जो अनन्त वीर्य अनन्त काधारक होने से अनन्तरूपता को प्राप्त हो रहा था, वही एक अखण्ड आत्मा के आश्रित होने से एकरूपता को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार व्यवहारनय से यह
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