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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
तथा अनेक है', इस प्रकार के भिन्न-भिन्न शास्त्रीय वाक्यों का समन्वय होता है। अनेकान्त रूप वस्तु ही नियम से कार्यकारी है
जो वस्तु अनेकान्त रूप है, वही नियम से कार्यकारी है; क्योंकि लोक में अनेक धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है। एकान्त रूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता और जो कार्य नहीं करता, उसको द्रव्य कैसे कहा जाय.३?
प्रयोजन निष्पत्ति को अर्थक्रिया कहते हैं। जैसे ज्ञान का प्रयोजन जानना है, अत: ज्ञान का परिच्छित्ति रूप जो परिणमन है, वही ज्ञान की अर्थक्रिया है। अपने स्वरूप को न छोड़कर परिणमन करना द्रव्य का प्रयोजन है; क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से ही द्रव्य की सत्ता है। अत: द्रव्य में जो परिणमन रूप क्रिया होती है, वह द्रव्य की अर्थक्रिया है। प्रमाण और प्रमेय का व्यवहार सापेक्ष है
आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है -
कुतोऽन्तरों बहिरर्थनिह्नवे विनान्तरर्थादूहिरर्थ एव न । प्रमेयशून्यस्य नहि प्रमाणता प्रमाणशून्यस्य न हि प्रमेयता ।।
लघुतत्त्वस्फोट ५/९ बाह्य पदार्थों का अभाव मानने पर अन्तर्वर्ती पदार्थ कैसे हो सकता है और अन्तर्जेय के बिना बाह्य अर्थ नहीं हो सकता है। निश्चय से प्रमेय-बाह्य पदार्थ से रहित ज्ञान में प्रमाणता नहीं हो सकती और प्रमाण से रहित वस्तु में प्रमेयता नहीं रह सकती।
शून्याद्वैतवादी जैसे कुछ दर्शनकार बाह्य पदार्थ का सर्वथा अभाव मानकर एक ज्ञान का ही अद्वैत सिद्ध करते हैं और चार्वाक् जैसे कुछ दर्शनाकार ज्ञान-दर्शन के आधारभूत आत्मतत्त्व के अस्तित्व को अस्वीकृत कर ज्ञान दर्शन का भी अस्तित्व नहीं मानते हैं। उन दर्शनकारों की मान्यता का प्रतिषेध करते हुए आचार्य ने कहा है कि यदि बाह्य पदार्थों का निह्नव किया जाता है - या उनके अस्तित्व को अस्वीकृत किया जाता है तो अन्तर्जेय का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है? इसी प्रकार अन्तर्जेय के बिना बाह्य अर्थ का अस्तित्व कैसे माना जा सकता है? क्योंकि प्रमाण और प्रमेय का व्यवहार परस्पर सापेक्ष है। प्रमाण के बिना पदार्थ में प्रमेय का व्यवहार नहीं हो सकता है और प्रमेय के बिना प्रमाण में प्रमाण का व्यवहार नहीं हो सकता।
उपर्युक्त श्लोक में आचार्य ने अन्तर्जेय और बहिर्जेय की चर्चा की है। बाह्य पदार्थों का ज्ञान में जो विकल्प आता है, वह अन्तर्जेय कहलाता है और उस विकल्प में कारणभूत जो पदार्थ है, वह बहिर्जेय कहलाता है। जैन सिद्धान्त दोनों ज्ञेयों को स्वीकृत करता है। क्योंकि बहिर्जेय के बिना अन्तर्जेय की और अन्तज्ञेय के बिना बहिर्जेय की सत्ता नहीं सिद्ध होती है। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं।
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